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क्या यूपी के पसमांदा मुस्लिम बीजेपी की राह आसान करेंगे ?

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क्या यूपी के पसमांदा मुस्लिम बीजेपी की राह आसान करेंगे ?

कहने को तो हमारे देश में बहुत सारी कथाएं और कहानियां हैं. इन कथाओं और कहानियां में देश की सामाजिक, आर्थिक और नैतिक समास्यों पर बहुत कुछ कहा जा सकता है. लेकिन भारत का सच यही है कि सभी कथाएं राजनीतिक कथाओं के सामने बौनी पड़ जाती है. भले ही खाने को अनाज ना हो, रहने को घर नही हो, पढ़ने और सेहत के लिए स्कूल और अस्पताल नही हो, लेकिन राजनीति हमे खूब भाती है और आकर्षित भी करती है. जब समाज की कहानियां और कथाएं राजनीति से ही संचालित होने लगे तो फिर बाकी कथाओं की बिसात ही क्या है.

एक तरफ राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकले है तो दूसरी तरफ उसी कांग्रेस को नया गैर गांधी परिवार का अध्यक्ष मिल रहा है. कांग्रेस का यह खेल अपनी खोई जमीन को पाने के लिए है. उसे लगता है कि अगर इस बार चूक गए तो पार्टी का बचा खुचा इकबाल भी जाता रहेगा, और गांधी परिवार की विरासत भी खत्म हो जायेगी.

लेकिन इधर बीजेपी की दुदुंभी भी बाज रही है. कांग्रेस की यात्रा और विपक्षी एकता के संभावित परिणाम से घबराई बीजेपी और संघ अब उसी मुस्लिम समाज की तरफ हाथ बढ़ते दिख रहे है, जिसका विरोध करके उसने न सिर्फ हिंदुत्व के बैनर के नीचे अपने वोट बैंक को तैयार किया है, समाज को बांटा और देश के भीतर नफरती माहौल खड़ा किया बल्कि सत्ता के शिकार तक पहुंच कर सरकार बनाने में महारथ भी हासिल की है.

लेकिन बीजेपी का यह स्वर्णकाल अब डगमगा रहा है. उसे एहसास होने लगा है कि अगर वक्त रहते इसे ठीक नहीं किया गया तो सत्ता भी जा सकती है, और इतिहास में भी वो कलंकित हो सकती है. इसलिए जिस मुस्लिम समाज का उसने विरोध किया अब उसे पटाने में जुट गई है. मुसलमानों में 80 फीसदी से ज्यादा गरीब, उपेक्षित, पिछड़े और दलित मुसलमान है. जिन्हे पसमांदा मुस्लिम कहा जाता है. बीजेपी आजकल इस पसमांदा मुसलमान को अपने साथ जोड़ने को उतावली है. उसे लग रहा है कि अगर पसमांदा उसके साथ जुड़ गए तो आगामी राजनीति उसके लिए सहज भी होगी और वह कलंकित होने से भी बच जाएगी.

पिछले दिनों बीजेपी की यूपी इकाई ने पसमांदा मुसलमानों के साथ सम्मेलन किया और पसमांदा के कुछ मुस्लिम नेताओं से बयान भी दिलवाया. इस सम्मेलन में यूपी सरकार में एक मात्र मुस्लिम मंत्री दानिश अंसारी भी शामिल हुए और चीफ गेस्ट बने सूबे के उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक. इस खबर की काफी चर्चा भी हुई. अब चर्चा इस बात की हो रही है कि क्या वाकई पसमांदा मुसलमान बीजेपी के साथ जायेंगे ? सवाल ये भी है कि क्या बीजेपी पसमांदा मुसलमानों को टिकट देगी ? और सबसे अहम सवाल कि अगर बीजेपी और संघ पिछड़े मुसलमानों को अपने साथ जोड़ लेते है तब सपा की राजनीति का क्या होगा जो अभी तक यादव मुस्लिम की राजनीति को आगे बढ़ाते हुए यूपी में मजबूती से खड़ी है.

बता दें कि देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम यूपी में हैं. यहां इनकी आबादी लगभग चार करोड़ है. ज़ाहिर है इसमें सबसे ज़्यादा पिछड़े और पसमांदा मुसलमान ही हैं. पारंपरिक तौर पर यहां मुस्लिम आबादी समाजवादी, बहुजन समाज पार्टी, लोकदल और कांग्रेस को वोट देती आई है. पिछले कुछ चुनावों के दौरान बीजेपी ने यहां गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को खुद से जोड़ने में कामयाबी हासिल की है. अब वह पसमांदा मुस्लिमों को पार्टी से जोड़ने का प्रयास कर रही है.

याद रहे कि इस्लाम में जाति भेद नहीं है, लेकिन भारत में मुसलमान समाज अनौपचारिक तौर पर तीन कैटेगरी में बंटा हुआ है. और ये है – अशराफ़, अज़लाफ़ और अरज़ाल. लोगों का मानना है कि अशराफ़ समुदाय सवर्ण हिंदुओं की तरह मुस्लिमों में संभ्रांत समुदायों का प्रतिनिधित्व करता है, जो सही सोच नहीं है. इनमें सैयद, शेख़, मुग़ल, पठान, मुस्लिम राजपूत, तागा या त्यागी मुस्लिम, चौधरी मुस्लिम, ग्रहे या गौर मुस्लिम शामिल हैं. अज़लाफ़ मुस्लिमों में अंसारी, मंसूरी, कासगर, राईन, गुजर, बुनकर, गुर्जर, घोसी, कुरैशी, इदरिसी, नाइक, फ़कीर, सैफ़ी, अलवी, सलमानी जैसी जातियां हैं. जबकि अरज़ाल में दलित मुस्लिम शामिल हैं.

ये जातियां अशराफ़ की तुलना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर पिछड़ी हैं. बीजेपी की नज़र अज़लाफ़ और अरज़ाल समुदाय के इन्हीं मुस्लिम वोटरों पर है जिन्हें पसमांदा और पिछड़ा मुसलमान कहा जाता है. याद रहे भारत में पहली बार पसमांदा मुस्लिम शब्द का इस्तेमाल 1998 में अली अनवर अंसारी ने किया था, जब उन्होंने ‘पसमांदा मुस्लिम महाज’ नाम के संगठन की नींव रखी थी. पसमांदा एक फारसी शब्द है. जिसका मतलब होता है पिछड़ेपन से दोचार लोग.

बीजेपी ने पसमांदा मुस्लिमों को अपने पाले में लेने की जो कोशिश शुरू की है, उसका असली मकसद चुनाव में इस समाज का वोट पाकर सत्ता की राजनीति को आगे बढ़ाया जाना है. इस खेल में संघ भी बीजेपी को आगे बढ़ा रहा है और यही वजह है कि संघ के नेता लगातार अब मुस्लिम नेताओं से मिल रहे है और मस्जिदों का चक्कर भी काट रहे है. संघ को अब ये भी लगने लगा है कि 2025 में जब संघ के सौ साल पूरे होंगे तब देश में एक नए हिंदुत्व की राजनीति की शुरुआत होगी और इसमें पसमांदा की बड़ी भूमिका होगी. संघ यह भी मानकर चल रहा है कि गुजरात में अब संघ के हिंदुत्व से वहां के युवा निराश हो चुके है और अब वहां हिंदुत्व की राजनीति ज्यादा चल नही सकती है. संघ को अब यूपी रास आ रहा है और उसे लगता है कि यूपी में हिंदुत्व को पसमांदा के साथ जोड़कर एक नई कहानी गढ़ी जा सकती है.

हालांकि यह सच है कि मुसलमानों में 80 फीसदी आबादी अभी भी काफी पिछड़ी है, और सरकारी योजना का लाभ मुसलमान नहीं उठा पाते है. इस हिसाब से देखें तो मुसलमानों खासकर पसमांदा और पिछड़े मुसलमानों को कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ना बहुत जरूरी है. लेकिन पसमांदा और पिछड़े मुसलमान बीजेपी के साथ चले जायेंगे ? अभी इस पर कुछ खास नहीं कहा जा सकता. जानकार कह रहे है कि बीजेपी अगले चुनाव में कुछ मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतार भी सकती है. अगर उससे कुछ लाभ होता दिखेगा तो पसमांदा और पिछड़े मुसलमानों के प्रति प्रेम जारी रह सकता है. लेकिन बीजेपी के इस खेल से सपा को हानि होता देख रही है. सपा आगे क्या करेगी अभी देखना बाकी है.

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पिछले 23 सालों से डेडीकेटेड पत्रकार अंज़रुल बारी की पहचान प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया में एक खास चेहरे के तौर पर रही है. अंज़रुल बारी को देश के एक बेहतरीन और सुलझे एंकर, प्रोड्यूसर और रिपोर्टर के तौर पर जाना जाता है. इन्हें लंबे समय तक संसदीय कार्रवाइयों की रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव है. कई भाषाओं के माहिर अंज़रुल बारी टीवी पत्रकारिता से पहले ऑल इंडिया रेडियो, अलग अलग अखबारों और मैग्ज़ीन से जुड़े रहे हैं. इन्हें अपने 23 साला पत्रकारिता के दौर में विदेशी न्यूज़ एजेंसियों के लिए भी काम करने का अच्छा अनुभव है. देश के पहले प्राइवेट न्यूज़ चैनल जैन टीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर शो 'मुसलमान कल आज और कल' को इन्होंने बुलंदियों तक पहुंचाया, टीवी पत्रकारिता के दौर में इन्होंने देश की डिप्राइव्ड समाज को आगे लाने के लिए 'किसान की आवाज़', वॉइस ऑफ क्रिश्चियनिटी' और 'दलित आवाज़', जैसे चर्चित शोज़ को प्रोड्यूस कराया है. ईटीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर राजनीतिक शो 'सेंट्रल हॉल' के भी प्रोड्यूस रह चुके अंज़रुल बारी की कई स्टोरीज़ ने अपनी अलग छाप छोड़ी है. राजनीतिक हल्के में अच्छी पकड़ रखने वाले अंज़र सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय खबरों पर अच्छी पकड़ रखते हैं साथ ही अपने बेबाक कलम और जबान से सदा बहस का मौज़ू रहे है. डी.डी उर्दू चैनल के शुरू होने के बाद फिल्मी हस्तियों के इंटरव्यूज़ पर आधारित स्पेशल शो 'फिल्म की ज़बान उर्दू की तरह' से उन्होंने खूब नाम कमाया. सामाजिक हल्के में अपनी एक अलग पहचान रखने वाले अंज़रुल बारी 'इंडो मिडिल ईस्ट कल्चरल फ़ोरम' नामी मशहूर संस्था के संस्थापक महासचिव भी हैं.

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