नई दिल्ली, 20 सितम्बर: जमाअत-ए-इस्लामी हिंद का कहना है कि सरकार द्वारा प्रस्तावित महिला आरक्षण विधेयक की बहुत जरूरत थी. अपितु, विधेयक में ओबीसी और मुस्लिम समुदाय की महिलाओं को भी आरक्षण दिया जाना चाहिए. मीडिया को जारी किए गए एक बयान में जमाअत-ए-इस्लामी हिंद के उपाध्यक्ष प्रोफेसर सलीम इंजीनियर ने कहा, ‘एक मजबूत लोकतंत्र के लिए, सभी समूहों और वर्गों के लिए शक्ति के साझाकरण में प्रतिनिधित्व पाना महत्वपूर्ण है.
उन्होंने कहा ‘आज़ादी के 75 साल बाद भी, संसद और हमारी राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी निराशाजनक है. उनकी संख्या को अनुपात तक लाने का प्रयास किया जाना चाहिए’. महिला आरक्षण विधेयक इस दिशा में एक अच्छा कदम है. दप्रोफेसर सलीम इंजीनियर ने कहा, ‘यह काफी पहले आ जाना चाहिए था. अपने वर्तमान स्वरूप में विधेयक का मसौदा ओबीसी महिलाओं और मुस्लिम महिलाओं को बाहर करके भारत जैसे विशाल देश में गंभीर सामाजिक असमानताओं को संबोधित नहीं करता है’.
हालाँकि इस कानून में एससी और एसटी की महिलाओं को शामिल किया गया है, लेकिन इसमें ओबीसी और मुस्लिम समुदाय की महिलाओं को नजरअंदाज किया गया है. जस्टिस सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006), पोस्ट-सच्चर मूल्यांकन समिति की रिपोर्ट (2014), विविधता सूचकांक पर विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट (2008), भारत अपवर्जन रिपोर्ट (2013-14), 2011 की जनगणना और नवीनतम एनएसएसओ जैसी विभिन्न रिपोर्ट और अध्ययन रिपोर्ट सुझाव देते हैं कि भारतीय मुसलमानों और खासकर मुस्लिम महिलाओं का सामाजिक-आर्थिक सूचकांक काफी कमी है. संसद और राज्य विधानसभाओं में मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व लगातार घट रहा है। यह उनकी जनसंख्या के आकार के अनुपातिक नहीं है।”
प्रोफेसर सलीम इंजीनियर ने कहा, “प्रस्तावित आरक्षण अगली जनगणना के प्रकाशन और उसके बाद परिसीमन अभ्यास के बाद ही लागू होगा. यानी बिल का फायदा 2030 के बाद ही मिल सकेगा. इस प्रस्ताव के समय से ज़ाहिर होता है कि इसे आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर लाया गया है इसमें गंभीरता की कमी है। असमानता दूर करने के कई तरीकों में से एक है. सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण), महिला आरक्षण विधेयक में ओबीसी और मुस्लिम महिलाओं को नजरअंदाज करना अन्यायपूर्ण होगा और “सब का साथ, सबका विकास” की नीति के अनुरूप नहीं होगा.”