अखिलेश अखिल
कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा का आगामी लोकसभा चुनाव में कितना असर पड़ेगा और बीजेपी के बढ़ते जनाधार को कांग्रेस कितना कुंद कर पाएगी इसके बारे में अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी. लेकिन इतना तय है कि इस यात्रा ने कांग्रेस को संजीवनी दी है और पार्टी से जुड़े लोग और कांग्रेस वोटरों में एक तरह का उत्साह और कॉन्फिडेंस तो खड़ा कर ही दिया है. सच तो यह भी है कि कई राज्यों में अभी भी कांग्रेस मरणासन्न हालत में है. और पार्टी गुटबाजी की शिकार है. पार्टी की इस हालत से कांग्रेस कैसे निपटती है, इसे भी देखने की जरूरत है. खासकर हिंदी पट्टी में कांग्रेस का संगठन और कांग्रेस के लोग जागते है तो इसका लाभ पार्टी को मिलेगा. लेकिन क्या यह इतना आसान है ?
बता दें कि देश की हिंदी पट्टी में करीब 300 से ज्यादा लोकसभा सीट है. मौजूदा वक्त में इसमें बीजेपी करीब 200 सीटों पर दखल रख रही है. देश की यही हिंदी पट्टी बीजेपी को खाद पानी दे रही है. इसी पट्टी में सबसे ज्यादा जातीय खेल है तो धार्मिक उन्माद भी. बीजेपी किसी भी सूरत में हिंद्दी पट्टी को खोना नही चाहती.
संभावित विपक्षी एकता और कांग्रेस के नए तेवर से घबराई बीजेपी अब नए वोटबैंक की तलाश में जुट गई है. उसे लगने लगा है कि समय रहते नए जातीय समीकरण और वोट बैंक पर काम नही किया गया तो 2024 के चुनाव में स्थिति बदल सकती है. और ऐसा हुआ तो बीजेपी को सत्ता से हटना भी पर सकता है.
इसके लिए बीजेपी की तैयारी शुरू हो गई है. राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण यूपी और बिहार में 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अपने अन्य पिछड़ा वर्ग के वोटों में गिरावट के डर से बीजेपी ने अब अत्यंत पिछड़ा वर्ग, पसमांदा मुसलमानों, गैर-जाटव दलित को साथ लेकर एक नया समर्थन आधार बनाने की रणनीति तैयार की है.
बीजेपी पहले से ही यूपी और बिहार में पिछड़े मुसलमानों को लुभाने के प्रयास कर रही है. बीजेपी की नजर नए सामाजिक गठबंधन को मजबूत करने पर है. पार्टी का मानना है कि नया गठबंधन आने वाले आम चुनाव में इन महत्वपूर्ण राज्यों में उनकी लड़ाई को आसान बना देगा. पार्टी के नेताओं का कहना है कि यूपी में कुल मुस्लिम आबादी में पिछड़े मुसलमानों की हिस्सेदारी करीब 70 फीसदी है. बीजेपी के कई नेता पसमांदा के बीच काम कर रहे हैं. योगी सरकार के लोग भी अब मुसलमानों पर कोई हमला करने से बाज आ रहे है और पसमांदा के बीच पैठ बढ़ाने में जुटे हैं.
बता दें कि बीजेपी पहले ही यूपी के रामपुर, लखनऊ और बरेली में पसमांदा मुसलमानों के लिए सभा आयोजित कर चुकी है. यूपी में बीजेपी ने उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक और अल्पसंख्यक कल्याण राज्य मंत्री दानिश आजाद अंसारी को अपनी प्रस्तावित नई सोशल इंजीनियरिंग का जिम्मा सौंपा है. अंसारी को पसमांदा मुसलमानों तक पहुंचने की जिम्मेदारी दी गई है.
जानकारी के मुताबिक बीजेपी को इस खेल में कुछ सफलता भी मिल रही है. सूबे के कई पसमांदा नेता पार्टी से जुड़े है और अपने समाज के कल्याण के लिए कुछ योजनाओं के लिए लगातार योगी सरकार के संपर्क में है. हालाकि बीजेपी को यह भी लग रहा है कि देश में पसमांदा की राजनीति सबसे पहले बिहार से शुरू हुई थी और नीतीश कुमार पसमांदा को आगे बढ़ाने की राजनीति शुरू की थी. बीजेपी को यह भी लग रहा है कि चुनाव के वक्त जब नीतीश कुमार चुनाव मैदान में पसमांदा का मुद्दा उठाएंगे तो खेल बिगड़ेगा. सीधी हालत में बीजेपी को लग रहा है कि अगर पसमांदा का कुछ हिस्सा भी उसके साथ आ जायेगा तो उसे लाभ होगा.
बीजेपी पसमांदा के साथ ही ओबीसी और ईबीसी के साथ ही दलित वोट में भी अपनी जगह तलाश रही है. इस साल की शुरुआत में यूपी विधानसभा चुनावों से पहले कई गैर-यादव ओबीसी नेता बीजेपी से समाजवादी पार्टी में चले गए थे. जिसके रहते बीजेपी के ओबीसी वोट के आधार को नुकसान पहुंचा था. पार्टी सूत्रों ने कहा कि इनमें से कुछ नेताओं को वापस अपने पाले में लाने के प्रयास करते हुए बीजेपी को उम्मीद है कि एक और सामाजिक गठबंधन बनाने के समानांतर प्रयास से छिटके हुए समर्थन को वापस हासिल किया जा सकता है.
उधर, बीजेपी ने 26 नवंबर को संविधान दिवस पर पटना में एक कार्यक्रम आयोजित करने की योजना बनाई है. जिसके लिए ईबीसी, दलितों, आदिवासियों और पसमांदा मुसलमानों के प्रतिभागियों को अपने हक की लड़ाई के लिए एक समूह के रूप में काम करने के लिए इकट्ठा किया जाएगा. बीजेपी का यह बड़ा खेल है. बिहार के कई दलित, ओबीसी और इबीसी नेता इस आयोजन को सफल करने में जुटे हैं. बीजेपी के संजय पासवान इस आयोजन को धार देते दिख रहे हैं. उधर नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की भी बीजेपी के इस खेल पर पैनी नजर है. महागठबंधन के लोग किसी भी सूरत में अपने इस वोट बैंक को छिटकते नही देखना चाहते. अब देखना है कि बीजेपी अपने इस नए वोटबैंक के प्रयास में कितना सफल हो पाती है. अगर बीजेपी इन बोटबंको को साध लेती है तो मुकाबला अद्भुत होगा.