Thursday, September 19, 2024
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योगीराज का मदरसों पर नया फरमान, प्रार्थना से पहले राष्ट्रगान अनिवार्य

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25 मार्च को योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी के साथ से यूपी में योगीराज की शुरुआत हो गई. हिंदुत्व के अजेंडे पर यूपी की सत्ता में फिर से लौटी बीजेपी की योगी सरकार आगे क्या कुछ करती है इसे देखना है. जनता की उम्मीदों और समाज में भाईचारे को बढ़ाने में कितना सफल होगी योगी सरकार, इस पर अब सबकी निगाहें होंगी. लेकिन योगीराज से पहले जिस तरह से मदरसों पर नकेल कसने की कोशिश की गई है उससे समाज में एक नई राजनीति की शुरुआत कही जा रही है. इस राजनीति का क्या हश्र होगा इसे देखना है.
योगी आदित्यनाश सरकार के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत से पहले ही मदरसों पर नया फरमान आ गया है. इसके तहत अब प्रार्थना से पहले मदरसों में हर दिन राष्ट्रगान को अनिवार्य कर दिया गया है. विशेषज्ञों ने इसे संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन बताया है.
उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड ने फरमान जारी किया है कि यूपी के सभी मदरसों में सुबह की प्रार्थना के साथ ही राष्ट्र गान भी अनिवार्य रूप से गाया जाए. मदरसा शिक्षा बोर्ड राज्य के मदरसों में शिक्षा के विषय का मूल संस्थान है. लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि किसी अन्य शिक्षण संस्थान के लिए ऐसा कोई आदेश जारी नहीं हुआ है. ध्यान रहे कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अलावा राष्ट्र गान को गाना वैकल्पिक ही रहा है, न कि अनिवार्य, लेकिन मदरसा शिक्षा बोर्ड ने यह कहते हुए मदरसों में इसे अनिवार्य कर दिया है कि इससे “मदरसे के छात्रों में भी देश भक्ति और राष्ट्र भावना उत्पन्न होगा और वे इस बहाने देश के इतिहास और संस्कृति को समझ सकते हैं.”
बता दें कि उत्तर प्रदेश में इस समय 560 स्थाई मदरसे हैं जोकि बोर्ड से मान्यता प्राप्त हैं. मदरसा बोर्ड के चेयरमैन इफ्तिखार अहमद जावेद ने इस विषय में मीडिया से कहा कि राष्ट्र गान को गाना अनिवार्य किए जाने के साथ ही नए सत्र से मदरसा शिक्षकों की बायोमीट्रिक उपस्थिति भी अनिवार्य की जा रही है. साथ ही छात्रों की ऑनलाइन पंजीकरण की व्यवस्था भी की जा रही है.
जावेद ने कहा कि मदरसा शिक्षकों की भर्ती के लिए अब मदरसा टीचर्स एलिजिबिलिटी टेस्ट (एमटेट) का आयोजन किया जाएगा. उन्होंने कहा कि मदरसों में शिक्षकों की भर्ती में बड़े पैमाने पर परिवारवाद चलता रहा है. उन्होंने कहा कि, “शिक्षकों की भर्ती में परिवारवाद एक तरह का नियम बन गया है. इसीलिए मदरसा बोर्ड एमटेट की व्यवस्था कर रहा है, लेकिन चयन प्रक्रिया को प्रबंधन द्वारा ही अंतिम रूप दिया जाएगा. इस बारे में सरकार को औपचारिक प्रस्ताव जल्द भेजा जाएगा.”
याद दिला दें कि योगी सरकार ने 2018 में महाराज गंज जिले के एक मदरसे की मान्यता इस आधार पर रद्द कर दी थी, क्योंकि वहां के टीचर ने छात्रों को स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रगान गाने से मना किया था.
मदरसा बोर्ड के इस फैसले पर शिक्षाविदों का कहना है कि राष्ट्रगान को अनिवार्य करना संविधान की मूल भावना का उल्लंघन है. विशेषज्ञों के मुताबिक संविधान का अनुच्छेद 30(1) सभी अल्पसंख्यकों को धर्म अथवा भाषा के आधार पर अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार देता है. इसी तरह अनुच्छेद 30 (2) कहता है कि सरकार किसी भी शैक्षणिक संस्थान के खिलाफ सिर्फ इस आधार पर कि वह अल्पसंख्य समुदाय द्वारा नियंत्रित है, भाषा या धर्म के आधार पर आर्थिक मदद देने में कोई भेदभाव नहीं कर सकती है.

चारो तरफ से घिर चुकी इमरान सरकार क्या बच पायेगी ?

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पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का क्या होगा कहना मुश्किल है. स्थानीय मीडिया रिपोर्ट तो यही बता रही है कि इमरान सरकार चारो तरफ से घिर चुकी है. उनकी पार्टी के दो दर्जन से ज्यादा सांसद विपक्ष के खेमे में जा चुके हैं और सरकार अल्पमत में आ चुकी है लेकिन पीएम इमरान के हौशले अब भी बुलंद हैं. खबर के मुताबिक 25 से 28 मार्च के बीच उनके खिलाफ नेशनल असेंबली में नो कॉन्फिडेंस मोशन यानी अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग हो सकती है. उधर, बुधवार को इमरान ने कहा, ‘मेरा इस्तीफा मांगने वाले सुन लें, मैं आखिरी बॉल तक खेलना जानता हूं. इस्तीफा नहीं दूंगा. मेरे पास तुरुप के पत्ते बाकी हैं. इन्हें देखकर दुनिया हैरान रह जाएगी. ‘मीडिया से बातचीत में खान ने कहा, अपोजिशन के पास कुछ न कहने और करने को नहीं है. मैं उन्हें बहुत बड़ा सरप्राइज देने जा रहा हूं. उन्होंने तो अपने पत्ते खोल दिए, लेकिन मैं इन्हें वक्त पर ही खेलूंगा. नेशनल असेंबली में नो-कॉन्फिडेंस मोशन आने दीजिए. फिर देखते हैं क्या होता है. ये कभी कामयाब नहीं होंगे. पीएम इमरान ने आगे कहा कि ” चाहे जो हो जाए, मैं किसी कीमत पर इस्तीफा नहीं दूंगा. आखिरी बॉल तक मैच खेलूंगा. विपक्ष तो खुद प्रेशर में है। इससे ज्यादा मैं अभी कुछ नहीं कहूंगा.”
इमरान ने एक बार फिर विपक्षी नेताओं को चोर और डाकू करार दिया. उन्होंने कहा- मैं शरीफ या जरदारी से हाथ नहीं मिलाउंगा. ऐसे करप्ट लोगों के साथ मैं खड़ा होना भी पसंद नहीं करता. एक तरह से उन्होंने ताकतवर फौज को भी धमकी दे दी. कहा- किसी को यह मुगालता नहीं पालना चाहिए कि मैं घर बैठ जाउंगा. जो कहते हैं कि मुझे इस्तीफा दे देना चाहिए, उन्हें ये भी बताना चाहिए कि मैं इस्तीफा क्यों दूं? क्या मैं चोरों के आगे झुक जाऊं? मुल्क की सियासत को कंट्रोल ऐसे नहीं किया जा सकता. हमारी अपोजिशन दरअसल, ब्रांड ऑफ करप्शन है.
इमरान के बयानों को गौर से देखें तो पता चलता है कि कोई ऐसी बात है जो उन्हें हिम्मत दे रही है. यह हिम्मत सुप्रीम कोर्ट से सम्बंधित हो या फिर विपक्षी कमजोरी की वजह से हो. इमरान को अभी भी लग रहा है कि उनकी पार्टी के जो सांसद उनके खिलाफ हैं, समय के साथ फिर उनके पाले में आ जायेंगे, या संभव है कि इमरान कोई और बड़ा जाल बन रहे हों.
लेकिन सच्चाई यही है कि अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रही पाकिस्तान की इमरान सरकार पर संकट और गहरा गया है. प्रधानमंत्री इमरान की सरकार के ही 24 सांसद बागी हो गए हैं. सूत्रों के अनुसार सरकार को समर्थन दे रहीं तीन पार्टियों एमक्यूएम पी, पीएमएल क्यू और बीएपी भी अविश्वास प्रस्ताव पर समर्थन देने को तैयार हो गई हैं. इन तीनों पार्टियों के 17 सांसद हैं. 342 सांसदों वाली पाकिस्तान की संसद में इमरान की पार्टी पीटीआई के अपने 155 सांसद हैं. सरकार को कुल 176 सांसदों का समर्थन है.
इमरान की पार्टी के बागी सांसद नूर आलम खान का कहना है कि अब वापसी का कोई रास्ता नहीं बचा है. इमरान सरकार के दिन पूरे हो गए हैं. पीटीआई के एक और बागी सांसद रमेश कुमार वंकवानी का दावा है कि पार्टी में बागियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. वंकवानी ने कहा कि अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ हम वोटिंग कर नए चुनाव के लिए तैयारी करेंगे. पाकिस्तान में संयुक्त विपक्षी मोर्चा PDM के वरिष्ठ सदस्य मौलाना गफूर हैदरी का कहना है कि हमारे सांसद एकजुट हैं. इमरान सरकार सभी मोर्चों पर विफल रही है. सरकार के सहयोगी दल भी साथ छोड़ रहे हैं.
विपक्ष का एक सूत्री एजेंडा इमरान सरकार को उखाड़ फेंकना है. इस बीच पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) की मरियम नवाज का कहना है कि इमरान सरकार ने विश्वास खो दिया है. इस सरकार का जाना अब तय है. मरियम ने सेना का नाम लिए बिना कहा कि इमरान सरकार को अब अन्य संस्थाओं का विश्वास भी नहीं है. ऐसे में उनकी सरकार बड़े खतरे में है.

राज्यपाल सत्यपाल मालिक के आरोप पर सीबीआई करेगी जांच

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EDS PLS TAKE NOTE OF THIS PTI PICK OF THE DAY:::::::: Jammu: J & K Governor Satya Pal Malik addresses the media in Jammu, Thursday, Nov 22, 2018. (PTI Photo) (PTI11_22_2018_000015A)(PTI11_22_2018_000178B)

पिछले साल किसान आंदोलन के दौरान मेघालय के 21वें राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने आरोप लगाया था कि जब वो जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल थे, तो संघ और बड़े औद्योगिक घरानों की फाइल क्लियर करने के बदले 300 करोड़ रुपये के रिश्वत की पेशकश की गई थी. हालांकि, उन्होंने फाइल क्लियर करने के बाद रिश्वत लेने से इनकार कर दिया था और उन सौदों को ही रद्द कर दिया था. अब इस तरह के आरोप की जांच सीबीआई से कराने की सिफारिश जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने की है. माना जा रहा है कि मालिक के बागी तेवर को देखते हुए यह कदम उठाया जा रहा है. हालांकि कई जानकारों ने यह भी कहा है कि अगर राज्यपाल ने इस तरह के आरोप लगाए हैं तब इसकी जांच की जानी चाहिए. याद रहे सत्यपाल मलिक के राज्यपाल रहते ही जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष राज्य का दर्जा हटाने के लिए अनुच्छेद-370 को संसद से निरस्त कर दो केंद्रशासित प्रदेशों का गठन किया गया था.
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सत्यपाल मलिक ने कहा था कि जब वे जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल बने, तब उनके पास दो फाइलें आई थीं. एक फाइल में अंबानी शामिल थे, जबकि दूसरी फाइल में आरएसएस के एक बड़े अधिकारी और महबूबा सरकार में मंत्री के करीबी रहे नेता जुड़े थे. ये नेता खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी बताते थे. राज्यपाल ने कहा था कि जिन विभागों की ये फाइलें थीं, उनके सचिवों ने उन्हें बताया था कि इन फाइलों में घपला है और सचिवों ने उन्हें यह भी बताया कि इन दोनों फाइलों में उन्हें 150-150 करोड़ रुपये मिल सकते हैं, लेकिन उन्होंने इन दोनों फाइलों से जुड़ी डील को रद्द कर दिया था.
सत्यपाल मलिक ने कहा था कि मैं दोनों फाइलों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने गया. मैंने उन्हें बताया कि इस फाइल में घपला है, ये-ये लोग इसमें इनवॉल्व है. ये आपका नाम लेते हैं, आप बताएं कि मुझे क्या करना है. मैंने उनसे कहा कि फाइलों को पास नहीं करूंगा, अगर करवाना है तो मैं पद छोड़ देता हूं. दूसरे से करवा लीजिए. मैं प्रधानमंत्री की तारीफ करूंगा, उन्होंने मुझसे कहा कि सत्यपाल करप्शन पर कोई समझौता नहीं करने की जरूरत है.
अब मालिक के उसी आरोप की जांच सीबीआई से कराने की सिफारिश जम्मू कश्मीर प्रशासन ने की है. संभव है कि इस पर जांच शुरू भी हो जाए. लेकिन इसके क्या परिणाम सामने आएंगे, कहना मुश्किल है. जबतक इस पर सीबीआई की रिपोर्ट आएगी तबतक मलिक रिटायर्ड हो चुके होंगे. फिर इस रिपोर्ट पर क्या करवाई होगी कहना कठिन है.

बंगाल में हिंसा के बाद भारी तनाव ,बीजेपी सांसदों का आज दौरा

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बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए कठिन दौर शुरू हो गया है. बंगाल के बीरभूम जिले के रामपुरहाट में जिस तरह से उपद्रवियों ने हिंसा को अंजाम दिया है उससे सारा देश उद्वेलित हो गया है. पहले टीएमसी के एक नेता की हत्या की गई और बाद में उपद्रवियों ने लोगों को घरों में बंद कर आग लगा दिया. इसमें एक ही परिवार के सात लोगों की जलकर मौत हो गई. अब तक दस लोगों की मौत की पुष्टि हो गई है. इस जघन्य कांड के बाद बंगाल में तनाव का वातावरण तो है ही ममता की सरकार केंद्र के निशाने पर आ गई है. कांग्रेस ने भी इस घटना की आलोचना की है और राज्य में राष्ट्रपति शासन की मांग की है. बंगाल की इस घटना की जानकारी लेने के लिए बीजेपी के पांच सांसद बंगाल दौरे पर जा रहे हैं. उम्मीद की जा रही है कि घटना स्थल से सांसदों के लौटने के बाद केंद्र कोई बड़ा फैसला ले सकता है. उधर बंगाल के सीएम ममता बनर्जी और राज्यपाल धनखड़ के बीच कहासुनी की खबरे भी आयी है और ममता ने राज्यपाल पर कई तरह के आरोप भी लगा दिए हैं.
इससे पहले कल बीजेपी के एक दल ने राज्यपाल जगदीप धनखड़ से लेकर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात की. अमित शाह ने राज्य सरकार से 72 घंटे में रिपोर्ट मांगी है. विधानसभा में विपक्ष के नेता सुवेंदु अधिकारी ने ट्वीट करके कहा कि पश्चिम बंगाल में कानून-व्यवस्था तेजी से चरमरा गई है. पंचायत उपप्रधान की हत्या के बाद बीरभूम जिले के रामपुरहाट इलाके में तनाव और दहशत फैल गई है. भादू शेख कथित तौर पर कल शाम एक बम हमले में मारा गया था. गुस्साई भीड़ ने बाद में तोड़फोड़ की और कई घरों में आग लगा दी.
पुलिस के मुताबिक, भादू शेख सोमवार रात को स्‍टेट हाईवे- 50 से गुजर रहे थे, तभी उन पर बम फेंका गया था. उन्‍हें घायल अवस्था में रामपुरहाट मेडिकल कॉलेज ले जाया गया, लेकिन तब तक उनकी जान जा चुकी थी. हालांकि इस मामले की जांच के लिए एसआईटी का गठन किया गया है. इसमें एडीजी वेस्टर्न रेंज संजय सिंह, सीआईडी, एडीजी ग्यानवंत सिंह के अलावा डीआईजी सीआईडी ऑपरेशन मेराज खालिद को शामिल किया गया है.
आरोप है कि टीएमसी के पंचायत नेता की हत्या के बाद भड़की भीड़ ने 10 घरों में आग लगा दी, जिसमें 10 लोगों की मौत हुई. हालांकि पुलिस दोनों घटनाओं को अलग बता रही है. पूरा सच तो जांच के बाद सामने आएगा, लेकिन पूरी घटना ने इंसानियत को शर्मसार कर दिया है.
बता दें कि बंगाल में फिर से टीएमसी की सरकार बनने के बाद लगातार हिंसक घटनाएं हुई है. इस हिंसक घटनाओ में दर्जनों लोगों की जाने गई है. लेकिन बीरभूम की ताजा घटना ने देश को हिला कर रख दिया है.
उधर, बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने रामपुरहाट में लोगों को जिंदा जलाए जाने की घटना पर चिंता जताई है. इस घटना को भयावह करार देते हुए गवर्नर ने कहा, ‘इस बर्बर घटना से मुझे गहरा आघात और दुख पहुंचा है. कानून व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है. हम राज्य में हिंसा और अराजकता की संस्कृति की इजाजत नहीं दे सकते. मैंने मुख्य सचिव से भी इस मामले पर बात की है.’
इस बीच राज्य के हिंसा और अराजकता की संस्कृति की गिरफ्त में होने का बयान देने के कुछ घंटे बाद ही सीएम ममता बनर्जी ने उनसे अनुचित बयान देने से बचने का आग्रह किया. धनखड़ को लिखे पत्र में मुख्यमंत्री ने कहा कि उनकी टिप्पणियां अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण हैं और ऐसे प्रतिष्ठित संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति के लिए अशोभनीय है, गवर्नर को संबोधित पत्र में सीएम ममता बनर्जी ने लिखा है, ‘आपकी बातों और बयानों का राजनीतिक स्वर होता है, जो सरकार को धमकाने के लिए अन्य राजनीतिक दलों को समर्थन मुहैया कराते हैं.’
अब देखना है कि बंगाल की राजनीति और वहां बढ़ती हिंसक घटनाओ पर केंद्र का क्या रुख होता है. अगर केंद्र ने कोई एक्शन लिया तो ममता की मुसीबत बढ़ सकती है.

उत्तराखंड में धामी की ताजपोशी के साथ ही बढ़ी चुनौतियाँ

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पुष्कर सिंह धामी ने आज उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. उन्हें राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह (रि) ने पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई. इस दौरान मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी मौजूद रहे. शपथ लेने के तुरंत बाद पुष्कर धामी पीएम मोदी का आशीर्वाद लेने उनके पास पहुंचे. धामी राज्य के 12वें मुख्यमंत्री बने हैं.
पुष्कर सिंह धामी के बाद सतपाल महाराज ने मंत्री पद की शपथ ली. सतपाल के अलावा धन सिंह रावत, गणेश जोशी, रेखा आर्य, सुबोध उनियाल, सौरव बहुगुणा, प्रेमचंद अग्रवाल और चंदन राम दास को भी राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह (रि) ने पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई.
पुष्कर सिंह धामी लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं. वह सूबे के 12वें सीएम हैं. इससे पहले जुलाई 2021 में तीरथ सिंह रावत के इस्तीफे के बाद बीजेपी ने पुष्कर सिंह धामी को राज्य की कमान सौंपी थी, लेकिन धामी के सीम बनते ही अब उनके सामने चुनौतियां भी बढ़ गई है. सूबे की जनता ने बड़े ही आस के साथ बीजेपी को वोट डाला था ताकि उनकी हालत में सुधार हो. सीएम बनने के बाद धामी जनता की उम्मीदों पर कितना खरा उतारते हैं इसे देखना होगा, सीएम धामी को अब कमजोर अर्थव्यवस्था, राजस्व के सीमित स्रोतों के बीच शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और परिवहन सेवाओं से जैसे बुनियादी मुद्दों का हल तलाशना है, बल्कि लोगों की अपेक्षाओं पर भी खरा उतरना है. साथ ही चुनाव के दौरान किए गए वायदों पर खरा उतरना भी सीएम के लिए बड़ा लक्ष्य होगा.
बता दें कि राज्य की अर्थव्यवस्था संतोषजनक स्थिति में नहीं है. आय के साधन न होने की वजह से राज्य पर इस वक्त 65 हजार करेाड़ रुपये का कर्ज हो चुका है. हालत यह है कि कार्मिकों के वेतन के लिए अक्सर सरकार को बाजार से कर्ज लेना पड़ता है. कर्ज का ब्याज चुकाने के लिए राज्य को नया कर्ज लेना पड़ता है. आर्थिक स्थिति को पटरी पर लाने के लिए आय के नए स्रोत तलाशने होंगे.
पलायन राज्य की बड़ी समस्याओं में शामिल है. रोजगार के अभाव में लोगों को शहरों और दूसरे राज्यों को पलायन करना पड़ रहा है. वर्ष 2011 तक राज्य के 968 गांव खाली हो गए थे. वर्ष 2011 के बाद इनमें 734 गांव और जुड़ चुके हैं. सीमांत क्षेत्रों के विकास के लिए ठोस योजनाएं न होने की वजह से पलायन का सिलसिला लगातार जारी है. कोरोना काल में लौटे प्रवासियों में भी ज्यादातर इसी वजह से वापस लौट चुके हैं.
इसके साथ ही उत्तराखंड वर्षों से बेरोजगारी के दंश से जूझ रहा है. रोजगार दफ्तरों में इस वक्त 8 लाख से ज्यादा बेरोजगार रजिस्टर्ड हैं. कोरेाना काल में लौटे प्रवासियों को रोजगार देने के लिए सरकार उपनल में भी रजिस्ट्रेशन खोले थे. उपनल में भी करीब एक लाख नाम दर्ज हो चुके हैं. पिछले पांच साल में सरकार 11 हजार के करीब ही नौकरियां दे पाई हैं.
उत्तराखंड के सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराना भी बड़ी चुनौती है. राज्य के 20 हजार से ज्यादा बेसिक, जूनियर, माध्यमिक स्कूलों में न तो पर्याप्त शिक्षक ही हैं और न ही पर्याप्त संसाधन. बड़ी संख्या में ऐसे स्कूल हैं जहां न बिजली की सुविधा है और पानी, टायलेट भी नहीं हैं. माध्यमिक स्तर पर ही छह हजार से ज्यादा पद रिक्त हैं. इनमें 4500 पर अतिथि शिक्षकों से काम चलाया जा रहा है.
पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी को दूर करना नए सीएम के लिए चुनौती होगी. इस वक्त राज्य के सरकारी अस्पतालों की स्थिति रैफरल सेंटर जैसी हो चुकी है. 515 डाक्टरों की कमी के कारण लोगों को उपचार के लिए प्राइवेट अस्पतालों की शरण लेनी पड़ती है. राज्य में 56 ऐसे अस्पताल हैं जहां अब तक जेनरेटर तक की व्यवस्था नहीं है.
भ्रष्टाचार उत्तराखंड में हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रहा है. समाज कल्याण छात्रवृत्ति, एनएच मुआवजा, भर्ती, बस खरीद, निर्माण कार्य, खनन-शराब समेत तमाम कई घोटाले हैं जो हर सरकार में आते रहे हैं. अब जबकि भ्रष्टाचार जोंक बनकर उत्तराखंड को चूस रहा है, नई सरकार को इस जोंक के खात्मे के लिए सुशासन का तीखा नमक तैयार करना होगा.
इसके साथ ही राज्य के 6.46 लाख घरों में अब तक पेयजल कनेक्शन नहीं है. इसके साथ ही राज्य के 100 में से 80 शहरों में लोगों को 135 एलपीसीडी के तय मानक से काफी कम पानी मिल रहा है. गरमियों में स्रोत सूख जाने की वजह से पर्वतीय क्षेत्रों में पानी का संकट और विकराल हो जाता है.
अफसरशाही को साधकर चलना भी हर सरकार के लिए चुनौती रहा है. उत्तराखंड माना जाता रहा है कि नौकरशाही कभी सरकार के नियंत्रण में नहीं रही. पिछली सरकार में तमाम मंत्री अफसरों के सामने अपनी लाचारी की पीड़ा सार्वजनिक रूप से जाहिर करते रहे हैं. अफसरों को नियंत्रित रखना और उनमें पब्लिक सर्वेंट की भावना जागृत करना सीएम के लिए बड़ा टास्क रहेगा.
भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र पर अमल कराना भी सीएम धामी के लिए बड़ी चुनौती होगा. भाजपा चुनाव घोषणा पत्र में कामन सिविल कोड लागू करने का बड़ा वादा किया. इसके साथ ही बीपीएल महिलाओं को साल में तीन मुफ्त सिलेंडर, कामगारों और गरीब महिलाओं को मासिक पेंशन, किसानों को केंद्र के समान सम्मान निधि समेत कई वायदे किए हैं. राज्य की कमजोर माली हालत के बीच इन वादों को पूरा करना सरकार की नैतिक जिम्मेदारी भी है.

और जनता की उम्मीदों पर फिट नहीं बैठे पीएम इमरान खान

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पाकिस्तान की जनता ने भरोसे के साथ इमरान की पार्टी ‘पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ’ (PTI) को सत्ता सौपीं थी, बदले में इमरान खान ने भी जनता से बहुत कुछ वादा किया था. बड़े-बड़े और लंबे चौड़े दावे किये गए थे. इमरान के लोक लुभावन दावों से मानों जनता नाच रही थी. जनता के मन में था की पहली दफा कोई ऐसी सरकार आयी है जो जनता की उम्मीदों पर खरी उतरेगी. लोगों का जीवन सुधरेगा और पाकिस्तान में अमन चैन और खुशहाली होगी. देश की आर्थिक स्थिति सुधर जाएगी. भारत-पाक रिश्तों में भी मधुरता आएगी. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. हालत ये है कि पाकिस्तान आज महंगाई और महंगाई की मार से बेहाल है. जनता महंगाई की वजह से सड़कों पर उतर चुकी है. लोग खाने-खाने को तरस रहे हैं. उधर पीएम इमरान ने अफगानिस्तान के मसले पर पश्चिमी देशों के खिलाफ बिगुल बजाया जिससे पश्चिमी देश पाकिस्तान के खिलाफ़ खड़े हो गए. पाकिस्तान पर कई तरह के प्रतिबन्ध लगा दिए गए. इसके बाद बिना बुलाये मास्को पहुंचकर पुतिन से समर्थन में खड़े होकर पश्चिमी देशो को और भी नाराज कर दिया. अंजाम ये हुआ कि इमरान सरकार के खिलाफ पाकिस्तान की सेना ही खड़ी हो गई. पाकिस्तानी सेना का वहाँ की सरकार के साथ क्या और कैसे सम्बन्ध रहे हैं यह कौन नहीं जनता और किसी से छुपा भी नहीं है. लेकिन इमरान की सबसे बड़ी परेशानी अपनी ही पार्टी के नेताओं से हो गई है. दर्जन भर से ज्यादा उनके सांसद उनके खिलाफ होकर विपक्ष के साथ खड़े हो गए हैं. उधर पाकिस्तान की सभी विपक्षी पार्टियों ने इमरान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की बात कही है. कहानी यही है कि इमरान सरकार का बचना अब कठिन है.
यह बात और है कि इमरान किसी भी सूरत में सरकार बचाने की तैयारी तो कर रहे हैं लेकिन खेल बड़ा और बिगड़ चुका है. प्रधानमंत्री इमरान खान एक ओर जहां अपनी कुर्सी बचाने और अविश्वास प्रस्ताव में बहुमत साबित करने की जद्दोहजद में लगे हैं, तो वहीं दूसरी तरफ विपक्षी दल अपनी अलग-अलग रणनीति बना रहे हैं. कुछ दलों ने तो नए पीएम पद के उम्मीदवार को लेकर चर्चा भी शुरू कर दी है. इसी कड़ी में सबसे पहले पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) ने अपने पीएम उम्मीदवार की घोषणा कर दी है.
पाकिस्तान की राजनीतिक पार्टी पीएमएल-एन की उपाध्यक्ष और नवाज शरीफ की बेटी मरियम नवाज़ ने सोमवार को कहा कि प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के सफल होने पर पीएमएल-एन के नेता शहबाज़ शरीफ प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी की ओर से उम्मीदवार होंगे. एक्सप्रेस ट्रिब्यून की रिपोर्ट के मुताबिक, इस्लामाबाद हाईकोर्ट के बाहर मीडिया से बातचीत के दौरान मरियम ने एक सवाल के जवाब में कहा कि विपक्ष प्रधानमंत्री पद के लिए अगले उम्मीदवार के चयन पर बैठक कर फैसला लेगा, लेकिन पीएमएल-एन शहबाज़ शरीफ को नामित करेगा.
इमरान खान के खिलाफ पेश किए गए अविश्वास प्रस्ताव के मद्देनजर, विपक्षी नेता ने कहा कि नेशनल असेंबली के सत्र में देरी करना ‘संविधान की अवहेलना करने और अनुच्छेद 6 को लागू करने’ जैसा है. उन्होंने कहा कि वह संवैधानिक विकृति की इस घटना पर अदालतों की ओर देख रही हैं. पीएमएल-एन नेता ने कहा, “इमरान खान! आपका खेल अब खत्म हो गया है.” पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) आधिकारिक तौर पर विभाजित हो गई है. मरियम ने कहा, “पीएम को पता है कि अब कोई भी उनके बचाव में नहीं आएगा, क्योंकि वह खेल हार चुके हैं.” उन्होंने कहा, “इमरान खान मानते हैं कि उनके खिलाफ एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश है, लेकिन वह खुद के खिलाफ साज़िश करते हैं.”
पिछले महीने से पाकिस्तान में जो कुछ भी सियासी खेल होता दिख रहा है उससे साफ़ लगता है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की कुर्सी पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं. उनके खिलाफ विपक्ष ने संसद में जिस अंदाज़ में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया है. उससे का काट कर पाना इमरान और उनकी पार्टी के मुश्किल है, लेकिन इससे पहले पाकिस्तान के 17 निर्दलीय सांसदों, जिनका संबंध जहांगीर खान तारीन की जेकेटी से है, ने पंजाब के मुख्यमंत्री को हटाने की मांग की है. इन 17 सांसदों की मांग है कि ये सत्ताधारी पीटीआई के साथ वापस आने को तैयार हैं, इसके लिए उन्होंने इमरान खान के आगे अपनी डिमांड रखी है.
सूत्रों के मुताबिक सरकार की ओर से पंजाब के शिक्षा मंत्री डॉ मुराद रास ने जेकेटी ग्रुप के साथ चर्चा की है. समूह के सदस्यों से कहा गया था कि वो अपनी चिंताएं जाहिर कर सकते हैं या फिर वो प्रधानमंत्री इमरान खान और पंजाब के मुख्यमंत्री उस्मान बुजदार से भी सीधे बैठक कर सकते हैं. इस समूह के सदस्यों ने फिर अपनी मांग में कहा कि पंजाब के मुख्यमंत्री बुजदार को हटाया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि वो पार्टी छोड़कर नहीं जाना चाहते लेकिन बुजदर को पद से हटाया जाना चाहिए.
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर विचार के लिए नेशनल असेम्बली की बैठक शुक्रवार को बुलाई जाएगी. वर्ष 2018 में प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद से इमरान की यह सबसे कठिन राजनीतिक परीक्षा होगी. नेशनल असेंबली के अध्यक्ष असद कैसर ने प्रधानमंत्री के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर विचार करने के लिए 25 मार्च को सदन का सत्र बुलाने की रविवार को घोषणा की थी.
पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के करीब 100 सांसदों ने आठ मार्च को नेशनल असेंबली सचिवालय को अविश्वास प्रस्ताव दिया था. इसमें आरोप लगाया गया है कि इमरान की अगवाई वाली पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ सरकार देश में आर्थिक संकट और मुद्रास्फीति के लिए जिम्मेदार है. विपक्ष का कहना है कि 14 दिनों के भीतर सत्र बुलाया जाना चाहिए, लेकिन गृह मंत्री शेख राशिद ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि विशेष परिस्थितियों के कारण इसमें देरी हो सकती है.
इस मामले में 22 मार्च से संसद भवन में शुरू हो रहे इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के बहुचर्चित 48वें शिखर सम्मेलन के कारण हुई है. शुरू में, विपक्ष ने धमकी दी थी कि अगर सत्र समय पर नहीं बुलाया गया तो वह धरना प्रदर्शन करेगा. हालांकि बाद में संयुक्त विपक्ष ने यह कहते हुए अपने रुख में नरमी दिखाई थी कि पाकिस्तान के राजनीतिक उथल-पुथल के कारण (ओआईसी के) कार्यक्रम को प्रभावित नहीं होने दिया जाएगा. संसद का निचला सदन प्रधानमंत्री के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर 25 मार्च को विचार करेगा. अगर इस प्रस्ताव को सदन औपचारिक रूप से स्वीकार कर लेता है, तो तीन से सात दिनों के बीच मतदान कराया जाना चाहिए.
सरकार और विपक्ष दोनों स्थिति को अपने-अपने अनुकूल बनाने के लिए भरसक कोशिश कर रहे हैं. 69 वर्षीय इमरान खान गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं और अगर कुछ सहयोगी दल पाला बदलने का फैसला करते हैं तो उन्हें पीएम पद से हटना पड़ सकता है. क्रिकेट से राजनीति में आए खान को हटाने के लिए विपक्ष को 342 सदस्यीय नेशनल असेंबली में 172 वोटों की जरूरत है. इमरान की पार्टी के सदन में 155 सदस्य हैं और सरकार में बने रहने के लिए उन्हें कम से कम 172 सांसदों की जरूरत है. उनकी पार्टी बहुमत के लिए कम से कम छह राजनीतिक दलों के 23 सदस्यों का समर्थन ले रही है.
प्रधानमंत्री के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान से पहले सत्तारूढ़ पार्टी के करीब 24 बागी सांसद खुलकर विरोध में उतर आए हैं, जबकि सरकार ने विपक्षी दलों पर सांसदों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगाये हैं.
इस बीच, इमरान खान ने अपनी पार्टी के बागी सांसदों से कहा है कि यदि पार्टी में वापस आ जाते हैं तो वह उन्हें माफ करने को तैयार हैं. साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि जो बागी सांसद उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते हैं उन्हें ‘सामाजिक बहिष्कार’ का सामना करने को तैयार रहना चाहिए.

बड़ी रोचक है स्वाति और दयाशंकर सिंह की तलाक गाथा

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ठगिनी राजनीति घर को कैसे बर्बाद करती है ,इसकी बानगी दयाशंकर सिंह और स्वाति सिंह की तलाक गाथा है। छात्र राजनीति ने दोनों को साथ किया। शादी हुई और राजनीति की ऊंचाई पर भी पहुंचे लेकिन अब दोनों एक दूसरे के दुश्मन हो गए। बड़बोले बीजेपी नेता दयाशंकर सिंह ने एक बार मायावती पर अभद्र टिप्पणी की थी। तब उनकी पत्नी स्वाति सिंह उनसे दूर रहते हुए भी अपने पति का पक्ष लिया और मायावती पर की गई पति की टिप्पणी को उचित बताते हुए पति के समर्थन में पति धर्म का पालन किया था। एक नयी राजनीति की शुरुआत कर यूपी की राजनीति में एक चर्चित चेहरा बानी थी।
2017 में चुनाव हुआ और वह बीजेपी से विधायक हो गई। तेज तर्रार होने की वजह से स्वाति को योगी मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। यह बात और है कि स्वाति सिंह मंत्री रहते हुए भी कई दफा विवादों में घिरी लेकिन पांच साल तक मंत्री बानी रही। इस बीच स्वाति और दयाशंकर सिंह के बीच कैसे सम्बन्ध रहे इसकी चर्चा कभी नहीं हुई। लेकिन जैसे ही 2022 के चुनाव से पहले स्वाति सिंह की सीट पर दयाशंकर सिंह ने अपना दावा किया ,दोनों के बीच तल्खी बढ़ती चली गई। बीजेपी ने स्वाति को टिकट नहीं दिता लेकिन दयाशंकर सिंह को किसी अन्य सीट से चुनाव में खड़ा कर दिया। दयाशंकर सिंह चुनाव जीत भी गए लेकिन स्वाति सिंह राजनीति से विदा कर दी गई। आने वाले समय में स्वाति की राजनीति क्या होगी कोई नहीं जानता लेकिन मौजूदा वक्त में अब पति पत्नी के बीच तलाक की नौबत आ गयी है। दोनों के रिश्ते टूट गए हैं और अब मामला अदालत तक पहुँच गया है। तलाक को लेकर पांच मई को सुनवाई होने की सम्भावना है।
स्वाति सिंह का परिवार मूल रूप से यूपी के बलिया से है। लेकिन पिता स्टील सिटी बोकारो में नौकरी करते थे, तो स्वाति का जन्म और लालन-पालन भी वहीं हुआ है। शुरुआती पढ़ाई पूरी करने के बाद स्वाति ने आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ का रुख किया। लखनऊ यूनिवर्सिटी में वो पहली बार दयाशंकर सिंह से मिलीं। दयाशंकर उस समय एबीवीपी से जुड़े थे और छात्र राजनीति में काफी सक्रिय थे। स्वाति भी धीरे-धीरे राजनीति से जुड़ीं। राजनीति के दांव-पेंच सीखते-सीखते दोनों प्यार में पड़े और फिर परिवार की सहमति से दोनों ने शादी कर ली।
छात्र राजनीति ने दोनों को मिलाया और मूल राजनीति ने दोनों को विलग कर दिया। बात 2016 की है। दयाशकंर सिंह ने बसपा सुप्रीमो मायावती को लेकर विवादित बयान दिया। दयाशकंर ने मायावती पर टिकट बेचने का आरोप लगाते हुए उनके लिए अपशब्द बोला। जाहिर सी बात है विवाद होना था और वैसा ही हुआ। हर तरफ बयान की आलोचन होने लगी और भाजपा से दयाशंकर सिंह पर कार्रवाई की मांग उठने लगी। उस समय नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी बसपा के राष्ट्रीय महासचिव थे। वो अपने कुछ समर्थकों के साथ लखनऊ के हजरतगंज चौराहे पर विरोध-प्रदर्शन करने पहुंचे। प्रदर्शन के दौरान उन्होंने दयाशंकर वाली गलती दोहराते हुए उनकी मां, पत्नी और बेटी को घसीट लिया। स्वाति सिंह नसीमुद्दीन के बयान पर फायर हो गईं। दयाशंकर अपने बयान के चलते बैकफुट पर चले गए थे। लेकिन जवाब में आई नसीमुद्दीन की टिप्पणी पर स्वाति सिंह ने उन्हें आड़े हाथों लिया। उन्होंने मोर्चा संभाल लिया। स्वाति सिंह ने बसपा प्रमुख मायावती को अपने खिलाफ चुनावी मैदान में उतरने की चुनौती दे डाली।
याद रहे स्वाति सिंह पर भी घरेलू हिंसा का आरोप लगा चुका है। उनकी भाभी ने मारपीट, बिना तलाक लिए भाई की दूसरी शादी कराने का जैसे गंभीर आरोप लगाए थे।
दयाशंकर और नसीमुद्दीन की उस शर्मनाक हरकत पर अलग-अलग तरीके से कार्रवाई हुई। एक तरफ जहां भाजपा ने दयाशंकर को 6 साल के लिए निलंबित कर दिया तो वहीं दयाशंकर सिंह की मां की तरफ दर्ज कराए गए एफआईआर की वजह से नसीमुद्दीन को जेल जाना पड़ा। भाजपा ने सेफ गेम खेलते हुए दयाशंकर सिंह को पार्टी से निकाला और रिप्लेसमेंट में महिला कार्ड खेलने वाली स्वाति सिंह को ले आए। स्वाति सिंह को भाजपा महिला प्ररोष्ठ का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। इस तरह से स्वाति सिंह राजनीति में आईं और शुरुआत से ही फायर ब्रांड नेता की छवि बनाए रखा।साल 2017 में स्वाति सिंह को पार्टी ने सरोजनी नगर सीट से चुनावी मैदान में उतारा। जीतने के बाद उन्हें योगी सरकार में मंत्री भी बनाया गया।
वैसे तो दोनों ने लव मैरिज की थी लेकिन कई मौकों पर दोनों के बीच मनमुटाव की खबर आती रही। साल 2008 में स्वाति सिंह पति के खिलाफ मारपीट का एफआईआर दर्ज कराया था। इसके अलावा स्वाति सिंह का एक ऑडियो भी वायरल हुआ था, जिसमें वो ये कहती हैं कि दयाशंकर सिंह उनसे बहुत मारपीट करते हैं। बहुत खराब आदमी से मेरी शादी हो गई है। स्वाति सिंह ने साल 2012 में तलाक के लिए कोर्ट पहुंची थीं। लेकिन मंत्री बनने के बाद केस की पैरवी बंद कर दी। 2018 में फैमिली कोर्ट ने दोनों पक्षों के कोर्ट नहीं पहुंचने पर केस बंद कर दिया था।
अब स्वाति और दयाशंकर सिंह फिर अलग हैं। दोनों की रहे भी अलग हो गई है। दयाशंकर सिंह इस चुनाव में विधायक बन गए हैं। संभव है कि इस बार योगी मंत्रिमंडल में वे शामिल भी हो जाए। लेकिन स्वाति सिंह का क्या होगा ? बीजेपी उसके लिए क्या करेगी यह एक अलग सवाल है। मौलिक सवाल तो यह है कि आखिर जिस राजनीति ने दोनों को एक साथ लाने का काम किया था अब वही राजनीति दोनों को विलग भी कर रही है। राजनीति का यह चरित्र लुभाता भी है और भरमाता भी है।

अमेठी को बीजेपी के चंगुल से छुड़ाने की राहुल बाबा की चुनौती

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क्या अमेठी में राहुल -प्रियंका की जोड़ी कुछ बेहतर कर पायेगी ? क्या अमेठी को बीजेपी के चंगुल से राहुल बहार निकाल पाएंगे ? इस बात को सब जानते हैं कि यूपी विधान सभा चुनाव में कांग्रेस कोई बड़ा करिश्मा नहीं करने जा रही है। लेकिन कांग्रेस के बारे में यह साफ़ हो गया है कि मौजूदा चुनाव में कांग्रेस करीने से लड़ रही है और आगामी लोक सभा चुनाव के लिए आधार तैयार कर रही है। कांग्रेस का यह आधार जितना मजबूत होगा ,आगामी चुनाव में पार्टी को इसका लाभ मिलेगा। यूपी में कांग्रेस भी एक ताकत के रूप में उभरेगी। लेकिन यह सब भविष्य की बात है। कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती तो अमेठी को बीजेपी से मुक्ति दिलाने की है। जो अमेठी गाँधी परिवार का गढ़ रहा है अब उस अमेठी में बीजेपी मजबूती से खड़ी। अमेठी के अधिकतर कोंग्रेसी बीजेपी के साथ है और अधिकतर कार्यकर्ता पार्टी से निराश और हताश होकर या तो मौन हैं या फिर सपा -बीजेपी के बीच बंट गए हैं।
सच तो यही है कि कांग्रेस के पास अमेठी में कुछ भी नहीं है। पहले अमेठी से बीजेपी नेता स्मृति ईरानी ने राहुल को चलता किया, अमेठी की तीन विधान सभा सीटें बीजेपी के पास गयी और बाद में एक सीट जो अदिति सिंह के पास थी अब वह भी अब कांग्रेस से जुड़ा होकर बीजेपी से चुनाव लड़ रही है। राहुल -प्रियंका को चुनौती दे रही है। यानी पांच में से चार सीटें फिलवक्त बीजेपी के पास है और एक सीट सपा के पास। कांग्रेस के पास अमेठी में कुछ भी नहीं है।
लेकिन अमेठी से कांग्रेस का लगाव है। उसकी जड़ें हैं और उसकी यादे भी। ऐसा ही कुछ अमेठी का भी कांग्रेस के साथ जुड़ाव रहा है। लेकिन अब अमेठी की तासीर बदल चुकी है। उसका मिजाज बदल गया है। जो अमेठी गाँधी परिवार के इशारे पर नारे लगाती थी अब बीजेपी की हुंकार से गाँधी परिवार को डराती है। चुनौती देती है। अमेठी अब कांग्रेस का गढ़ नहीं रहा वह तो कांग्रेस के हाथ से छीनी गई बीजेपी का एक प्रतीक है ,पहचान है और बीजेपी के लिए कांग्रेस मुक्त भारत का एक उदाहरण भी। पहले इस इलाके से राहुल को निपटाया गया और अब रायबरेली से सोनिया गाँधी को निपटाने की बारी है। बीजेपी के इस खेल की जिस दिन पूर्णाहुति होगी उसी दिन बीजेपी की यह घोषणा हो सकती है कि यूपी से गाँधी परिवार को मुक्ति मिल गई। यह कांग्रेस मुक्त भारत की शुरुआत है।
पांच राज्यों के चुनाव में कहने के लिए कांग्रेस को खोने के लिए कुछ भी नहीं है। जब कांग्रेस खुद ही खो चुकी है तो उसे डर किसका ! जानकार कहते हैं कि इस चुनाव में बीजेपी की प्रतिष्ठा दाव पर लगी है क्योंकि उसे चार राज्यों के खोने का भय है। कांग्रेस की प्रतिष्ठा सिर्फ पंजाब में दाव पर है। पंजाब में फिर से कांग्रेस की वापसी अगर हो गई तो राहुल का मान रह जाएगा। लेकिन सच क्या यही है ? क्या पंजाब की वापसी से ही कांग्रेस की इज्जत बच जाएगी ? ऐसा नहीं है। इस चुनाव में अगर कांग्रेस ने बीजेपी को मात नहीं दिया और कुछ राज्यों में उसकी सरकार नहीं बनी तो सच मानिये कांग्रेस अगले चुनाव तक जमींदोज हो जाएगी। गाँधी परिवार का इकबाल भी समाप्त हो जाएगा और फिर कांग्रेस के भीतर जो खेल होगा उसकी कल्पना भी नहीं जा सकती। इसलिए कांग्रेस के सामने बीजेपी से बड़ी चुनौती है। उसकी चुनौती राहुल -प्रियंका की राजनीति को स्थापित करने की है। और ऐसा नहीं हुआ तो फिर कांग्रेस क्षेत्रवार कई गुटों में बंट सकती है ,टूट सकती है और जमींदोज भी हो सकती है।
याद रहे यह चुनाव पूरी तरह से राहुल प्रियंका के दम पर लड़े जा रहे हैं,जिसमे किसी और कोंग्रेसी नेताओं की बड़ी भूमिका नहीं दिखती। पांच राज्यों का यह चुनाव राहुल -प्रियंका का लिटमस टेस्ट है। इस टेस्ट में वह सफल होते है तो कांग्रेस जीवंत होगी , पार्टी का इकबाल बढ़ेगा और पार्टी के प्रति नए लोगों का आकर्षण भी होगा। मौजूदा चुनाव में राहुल -प्रियंका की जोड़ी यही कुछ करने को तैयार हैं ताकि पार्टी भी बचे और गाँधी परिवार का इकबाल भी दिखे। लेकिन क्या यह सब इतना आसान है ? हरगिज नहीं।
कांग्रेस की असली चुनौती तो अब अमेठी और रायबरेली की है। यूपी के चुनाव में कांग्रेस कितनी सीटें पाती है इसका विश्लेषण तो परिणाम के बाद होगा लेकिन अमेठी से कांग्रेस अगर खाली हाथ वापस लौटती है तब गाँधी परिवार का यह गढ़ सदा के लिए समाप्त हो जाएगा। यूपी से गाँधी परिवार के पलायन और स्थापित होने की असली परीक्षा इसी चुनाव में होनी है। इसलिए अब राहुल की नजर भी यहां टिक गई है। अमेठी को बचाने के लिए अब राहुल गाँधी इंट्री कर चुके हैं। अमेठी में राहुल चुनाव प्रचार करने पहुंचे और लोगों से संवाद भी किया। लेकिन बदल चुकी अमेठी को राहुल भांप भी गए। मुस्कुराती अमेठी पर राहुल की रुदाली का जनता पर क्या असर होगा इसे देखने की जरूरत है।
2019 का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी ने दूसरी बार अमेठी का दौरा किया है। जनता ने राहुल के साथ नारे भी लगाए। राहुल भावुक भी हुए और फिर आगे निकल गए। राहुल को लगा कि अब अमेठी केवल उनकी ही नहीं है। अमेठी बदल चुकी है, बीजेपी के साथ अब उनके लोग चले गए हैं। बता दें कि लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद अब तक राहुल गांधी महज एक बार ही अमेठी गए थे। लेकिन अपने कमजोर होते गढ़ में वो एक बार फिर दस्तक दे गए। हाथ जोड़े ,अपने लोगों को जगाया ,मनाया भी।बीजेपी की हो गई अमेठी को भला राहुल की अपील से क्या मतलब ! जहां कांग्रेस पार्टी का कभी दबदबा रहा करता था और अब कांग्रेस पार्टी यहाँ नेता विहीन हो गया है।
बता दें कि लोकसभा चुनाव के बाद पहली दफा राहुल गाँधी पिछले साल दिसंबर में अमेठी। वही से उन्होंने चुनाव प्रचार का आगाज किया था।तब कहा गया था कि जिस अमेठी ने राहुल गांधी को हार का स्वाद चखाया, उसी इलाके से पार्टी के चुनावी रथ को गति देना महज एक इत्तेफाक नहीं हो सकता, बल्कि ये कांग्रेस पार्टी की रणनीति को दर्शाता है। जानकारों तब यह भी कहा था कि अमेठी में अपना सब कुछ खो चुकी कांग्रेस अब उसी अमेठी से बीजेपी को चुनौती देगी। यह बात और है कि तब राहुल के अमेठी पहुँचने का भव्य स्वागत हुआ था लेकिन अब अमेठी जब बीजेपी के भगवा रंग में रंग चुकी है ,राहुल यहाँ जनता के मिजाज को कितना बदल सकेंगे कहना मुश्किल है।
अमेठी -रायबरेली में अब कांग्रेस के पास कोई सीटें नहीं है। पंचायत स्तर पर भी कांग्रेस की झोली खाली है। आखिरी विधायक अदिति सिंह थी वह भी भगवा रंग में टांग गई और बीजेपी से ताल थोक रही है। अदिति सिंह के बीजेपी में जाते ही पार्टी का इस इलाके से सूपड़ा साफ हो गया और अब नेहरू-गांधी परिवार के गढ़ अमेठी-रायबरेली क्षेत्र की कुल 10 विधानसभा सीटों में से एक भी कांग्रेस के पास नहीं है। वहीं बीजेपी इन दोनों जिलों की जिला पंचायत तक पर काबिज हो चुकी है।
राहुल गांधी की हार और सोनिया गांधी के खराब स्वास्थ्य के चलते क्षेत्र में कार्यकर्ताओं को लगातार निर्देश न मिलने के चलते भी पार्टी अमेठी-रायबरेली में कमजोर हुई है। क्षेत्र के कई बड़े नेताओं, जिनमें दो विधायक भी शामिल हैं, के पार्टी छोड़कर जाने से भी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा है। इसके अलावा जमीनी स्तर पर बीजेपी और अमेठी में राहुल गांधी को मात देने वाली स्मृति ईरानी भी बीजेपी के विस्तार के लगातार प्रयासों में जुटी हुई है। इन तमाम कारणों के चलते प्रदेश भर में दंभ भरने वाली कांग्रेस अपने ही गढ़ में कमजोर और बीजेपी मजबूत नजर आ रही है।
यूपी चुनाव में बड़े -बड़े दाव खेलने की तैयारी कांग्रेस ने जरूर की है लेकिन मौजूदा चुनाव में कांग्रेस कोई बड़ी उपलब्धि पाती नजर नहीं आ रही। महिलाओं पर दाव और बेरोजगार युवाओं के लिए रोजगार की घोषणा लुभाती जरूर है लेकिन जाति और धर्म की राजनीति कांग्रेस को पिछाड़ रही है। यही वजह है कि पार्टी के तमाम बड़े नेता अभी मौन हैं। उनकी चुप्पी तब टूटेगी.
जब कांग्रेस के आखिरी गढ़ अमेठी और रायबरेली में प्रियंका और राहुल की जोड़ी को चमत्कार कर पायेगी। पंजाब को वापस कर सकेगी और उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में अपनी दस्तक दे पायेगी। ऐसा हुआ तो राहुल -प्रियंका की युवा और नयी राजनीति आगे बढ़ेगी वरना बीजेपी को मात देने की थर्ड फ्रंट की कथित राजनीति और कथित पीएम उम्मीदवार कांग्रेस को बाईपास कर आगे निकल जाएगी।

काफी मनोरंजक है पिछड़े वर्ग के नेताओं की अग्निपरीक्षा

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यूपी में रविवार को पांचवे चरण के चुनाव होने हैं। कुल 12 जिलों की 61 सीटों पर ये चुनाव होंगे। इसके बाद चुनाव के दो चरण और पूरे होने हैं। इन तीन चरणों में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा सभी दलों के ओबीसी नेताओं की दाव पर लगी हुई है। सपा गठबंधन में शामिल नेताओं की प्रतिष्ठा भी दाव पर तो बीजेपी गठबंधन में शामिल ओबीसी नेताओं का मान सम्मान भी दाव पर लगा हुआ है। गठबंधन में शामिल नेताओं की जीत से उनके भविष्य की राजनीति तय होनी है तो हार के बाद कई तरह के खेल की संभावना से भी नकार नहीं किया जा सकता।
चुनावी मैदान में कहने के लिए तो सपा और बीजेपी में भिड़ंत है लेकिन बसपा और कांग्रेस की राजनीति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऊपर से देखने में बसपा और कांग्रेस पिछड़ती दिखती है लेकिन जिस तरह की भीड़ इनकी सभाओं में उमर रही है अगर वह वोट में तब्दील हो गया तो यूपी विधान सभा चुनाव का परिणाम त्रिशंकु भी हो सकता है और ऐसे में बसपा और कांग्रेस किंग मेकर की भूमिका में नजर आ सकती हैं। कांग्रेस के तरफ से बार -बार इस तरह के इशारे भी किये जा रहे हैं।
लेकिन यहां सवाल है कि जिन पिछड़ी जातियों के निर्णायक वोट पर यह चुनाव टिका हुआ है और जिन ओबीसी नेताओं के जरिए चुनाव परिणाम की समीक्षा की जा रही है ,अगर उसके नेता ही चुनावी मैदान में फस जाए तो क्या होगा ? आगामी तीन चरणों के चुनाव में ओबीसी नेताओं की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा होनी है।
बता दें कि राज्य के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य बीजेपी के चुनाव प्रचार अभियान में काफी आक्रामक तरीके से लगे हुए हैं और वह एक विधानसभा क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में व्यस्त हैं। वह कौशांबी जिले की सिराथु सीट से चुनाव लड़ रहे हैं और उनका मुकाबला समाजवादी पार्टी की पल्लवी पटेल से है। पल्लवी पहली बार चुनाव लड़ रही हैं लेकिन यहां के जातिगत समीकरण को लेकर वह काफी आश्वस्त हैं कि उनकी जीत तय है। ये पल्ल्वी पटेल अनुप्रिया पटेल की बहन है और कृष्णा पटेल की बेटी। गजब का खेल ये है कि अनुप्रिया पटेल अपनादल के एक गुट के साथ बीजेपी गठबंधन में है जबकि कृष्णा पटक का अपना दल सपा गठबंधन के साथ है। सिराथू सीट पर मौर्य समाज और पटेल समाज का दबदवा है। एक ही समुदाय के दो नेताओं के बीच की यह लड़ाई रोचक है और प्रतिष्ठा का सवाल भी। मौर्य को चुनाव में जीत मिलती है तब उनके भविष्य की राजनीति तय होगी और पटेल अगर चुनाव जीतती है तो सिराथू में एक नए समीकरण का जन्म होगा।
यह बात और है कि केशव प्रसाद मौर्य का प्रचार पल्लवी की बहन अनुप्रिया पटेल कर रही हैं लेकिन मौर्य को अपने विधानसभा क्षेत्र में मतदाताओं के असंतोष का सामना करना पड़ रहा है। मौर्य के खिलाफ बहुत से लोग कई तरह की बातें कर रहे हैं। अगर लोगों ने मौर्य के खिलाफ मन बना लिया तो बीजेपी को बड़ा झटक लग सकता है।
पिछड़ा वर्ग से एक अन्य प्रमुख नेता सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष और विधायक ओम प्रकाश राजभर हैं जिनका भाग्य आने वाले चरणों पर निर्भर करता है। राजभर गाजीपुर की जहूराबाद सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। बीजेपी ने उनके खिलाफ कालीचरण राजभर को खड़ा किया है जो उनकी वोटों में सेंध लगाएंगे।हालांकि राजभर को बीएसपी से सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है जिसने सपा की बागी उम्मीदवार शादाब फातिमा को मैदान में उतार दिया है। पूर्व विधायक शादाब फातिमा अपने निर्वाचन क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैं और इस सीट से जीतने को लेकर आश्वस्त भी हैं। राजभर सपा के साथ मिलकर बीजेपी को पटखनी देने का ऐलान कर चुके हैं लेकिन अगर उनको खुद पटखनी मिल गई तो खेल कुछ और ही हो सकता है। राजभर बेचैन और परेशानी से गुजर रहे हैं।
केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल को भी अपनी पार्टी अपना दल के लिए चुनाव के अगले चरणों में एक अग्नि परीक्षा का सामना करना पड़ रहा है, जिसने अब तक चुनाव में जोरदार सफलता दर देखी है। अपना दल एक कुर्मी-केंद्रित पार्टी है जिसे अनुप्रिया के पिता डॉ सोनेलाल पटेल ने बनाया था। हालांकि अनुप्रिया चुनाव नहीं लड़ रही हैं, लेकिन उनकी पार्टी के उम्मीदवार कथित तौर पर अपने निर्वाचन क्षेत्रों में सत्ता विरोधी लहर महसूस कर रहे हैं। अनुप्रिया खुद अपनी पार्टी के लिए जोरदार प्रचार कर रही हैं और उम्मीद करती हैं कि वह अपनी बाधाओं को दूर कर सफलता हासिल करेंगी और यह जीत उनका भविष्य भी तय करेगी। लेकिन उसकी असली लड़ाई तो अपनी माँ बहनो से ही है। सोनेलाल पटेल की विधवा कृष्णा पटेल हर हाल में अनुप्रिया पटेल को शिकस्त देने को तैयार है। उनके निशाने पर अनुप्रिया भी है और बीजेपी भी। खेल रोचक है।
निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद के लिए ये चुनाव करो या मरो का मामला है। वह बीजेपी के साथ गठबंधन में अपनी पार्टी की तरफ से अच्छा प्रदर्शन कर यह दिखा सकते हैं कि उनमें कितना दम हैं और इससे उनका भविष्य में बीजेपी के साथ रिश्ता तय होगा। निषाद समुदाय अनुसूचित जाति वर्ग में आरक्षण की मांग कर रहा है और संजय निषाद वादों के बावजूद बीजेपी को इसकी घोषणा करने के लिए मनाने में विफल रहे हैं। अगर उनकी पार्टी चुनावों में खराब प्रदर्शन करती है तो आने वाले समय में बीजेपी और उनका संबंध तय हो सकता है।
बीजेपी के पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य के लिए इस बार उनका चुनाव उनके राजनीतिक भविष्य के लिए अहम है। पिछले महीने बीजेपी छोड़कर सपा में शामिल हुए मौर्य कुशीनगर जिले के नए निर्वाचन क्षेत्र फाजिलनगर से सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं जबकि बीजेपी ने उनके सामने सुरेंद्र कुशवाहा को मैदान में उतारा है। मौर्य को बीजेपी से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है जो मौर्य को हराने और अपने ‘विश्वासघात’ का बदला लेने के लिए उत्सुक है।
अंतिम चरणों में एक अन्य ओबीसी नेता कृष्णा पटेल हैं, जो अपना दल से अलग हुए धड़े की मुखिया हैं। वह प्रतापगढ़ से समाजवादी पार्टी और अपना दल (के) के गठबंधन उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रही हैं। अनुप्रिया पटेल ने अपनी पार्टी को अपनी मां के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ने देने का फैसला किया है, जिससे कृष्णा पटेल के लिए राह आसान दिख रही है। बीजेपी ने अनुप्रिया पटेल को यह सीट दी थी। हालांकि, कृष्णा पटेल का आसपास की सीटों पर कितना असर है या नहीं, यह देखना बाकी है।
प्रदेश कांग्रेस समिति अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू कुशीनगर की तामकुहीराज विधानसभा सीट से चुनाव लड़ेंगे। लेकिन उनकी सीट भी इस बार सेफ नहीं है। लल्लू को सपा और बीजेपी के अलावा अपनी ही पार्टी के एक धड़े से चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। उनकी चुनावी जीत प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनका भविष्य भी तय करेगी।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में ओबीसी यानी पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा 52 फीसदी है। इसी वजह से 1990 के बाद इस जाति का राजनीति में दबदबा बढ़ गया। खासतौर से यादव जाति का. पिछड़ा वर्ग में सबसे ज्यादा 11% मतदाता हैं। इसी वजह से 1989 में सबसे पहले मुलायम सिंह, यादव जाति के मुखिया बनकर उभरे। हालांकि उससे पहले भी जनता पार्टी से राम नरेश यादव 1977 में मुख्यमंत्री बन चुके थे। मंडल कमीशन के बाद यादव जाति का मुलायम सिंह को पूरा समर्थन मिला जिसके बाद वे 1989 , 1993, 2003 में मुख्यमंत्री बने फिर 2012 में अखिलेश यादव सत्ता पर काबिज हुए। यादव जाति के मुख्यमंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव तीन बार सत्ता पर काबिज हुए फिर उनके बेटे अखिलेश यादव। अब यादव जाति की वोट बैंक में सेंध लगने लगी है। 2007 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को 72 फ़ीसदी यादव ने अपना वोट दिया था वहीं 2012 के विधानसभा चुनाव में यह घटके 63 फीसदी रह गया। जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में 66 फीसदी वोट मिले। वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में केवल 53 फ़ीसदी यादव ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया। जबकि 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को केवल 6 फीसदी यादव का वोट मिला था। वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में 27 फ़ीसदी यादवों का वोट भाजपा को मिला। इस तरह यादव जाति में भी भाजपा ने सेंध लगा दी है जिसके चलते कहा जा सकता है कि समाजवादी पार्टी का परंपरागत वोट बैंक अब कम हो रहा है। लेकिन इस चुनाव में यादव वोट किधर जाता है इसे देखना है। हालांकि यह भी सच है कि बीजेपी भी यादवों के बीच पहुँच गई है और यादवो का एक बड़ा तबका बीजेपी के साथ कोर वोटर के रूप में है।
उधर गई यादव पिछड़ी वोट बैंक की कहानी भी कम रोचक नहीं। 2022 के इस चुनाव में पिछड़ा वर्ग में शामिल 79 जातियों पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए राजनीतिक कसरत चल रही है। चार चरणों के चुनाव में गैर यादव पिछड़ी समाज ने जो वोट दिया है उसी के आधार पर माना जा रहा है कि सपा को बढ़त है लेकिन यह पूरा सच नहीं है।पिछड़ा वर्ग में यादव और गैर यादव धड़ों में बंटा हुआ है। जहां यादव 11 फ़ीसदी हैं तो वही गैर यादव 43 फ़ीसदी हैं। वही पिछड़ा वर्ग में यादव जाति के बाद सबसे ज्यादा कुर्मी मतदाताओं की संख्या है। इस जाति के मतदाता दर्जनभर जनपदों में 12 फ़ीसदी तक है। वहीं वर्तमान में अपना दल कि इस जाति पर मजबूत पकड़ है जो भाजपा की सहयोगी पार्टी है। वहीं पिछड़ा वर्ग में मौर्य और कुशवाहा जाति की संख्या प्रदेश के 13 जिलों में सबसे ज्यादा है। वहीं वर्तमान में स्वामी प्रसाद मौर्या और केशव प्रसाद मौर्य इस जाति के बड़े नेता के रूप में जाने जाते हैं। कभी दोनों नेता एक ही पार्टी बीजेपी में थे लेकिन अब स्वामी प्रसाद मौर्य सपा के साकत आकर बीजेपी को चुनौती दे रहे हैं।
ओबीसी में चौथी बड़ी जाति लोध है. यह जाति बीजेपी का परंपरागत वोट बैंक मानी जाती है। यूपी के दो दर्जन जनपदों में इस जाति के मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा है। वही लोधी नेता के रूप में कल्याण सिंह का नाम कौन भूल सकता है।
पिछड़ा वर्ग में पांचवीं सबसे बड़ी जाति के रूप में मल्लाह निषाद हैं। इस जाति की आबादी दर्जनभर जनपदों में सबसे ज्यादा है। गंगा किनारे बसे जनपदों में मल्लाह और निषाद समुदाय 6 से 10 फ़ीसदी है जो अपने संख्या के बलबूते चुनाव के परिणाम में बड़ा असर डालते हैं। वर्तमान में इस जाति के नेता के रूप में डॉक्टर संजय निषाद हैं जो भाजपा के साथ है। पिछड़ा वोट बैंक में राजभर बिरादरी की आबादी 2 फ़ीसदी से कम है लेकिन पूर्वांचल के आधा दर्जन जनपदों पर इनका खासा असर है। इसके बड़े नेता के रूप में ओमप्रकाश राजभर और अनिल राजभर की गिनती की जाती है। ओमप्रकाश राजभर जहां भाजपा से दूर सपा के साथ हैं. वहीं अनिल राजभर भाजपा में मंत्री हैं। जातियों की यह गोलबंदी बहुत कुछ कहती है। लेकिन मजे की बात यह है कि जातियों की राजनीति करने वाले नेताओं की ही प्रतिष्ठा दाव पर लगी है।

पाकिस्तान ने की अमेरिका से मदद की गुहार, सीपीईसी से खींच सकता है हाथ

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आर्थिक संकट से जूझ रहे पाकिस्तान के बारे में एशिया टाइम्स ने दावा किया है कि जिस तरह से पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय अलगाव का सामना कर रहा है और और बलूचिस्तान इलाके में सीपीईसी का विरोध हो रहा है उससे से इमरान सरकार काफी निराश और हताश हैं। ऐसे में परेशान पाकिस्तान अब अपनी आर्थिक संकट को दूर करने के लिए चीन -पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर यानी सीपीईसी को ख़त्म करने को तैयार है। खबर के मुताबिक़ पकिस्तान को अब यह लगने लगा है कि चीन पर अधिक निर्भरता की वजह से ही अमेरिका समेत दुनिया के बड़े देशों से न सिर्फ उसके सम्बन्ध ख़राब हो रहे हैं बल्कि पकिस्तान कई तरह के प्रतिबंधों का भी सामना कर रहा है। हालांकि एशिया टाइम्स ने यह भी दावा किया है कि पकिस्तान की इमरान सरकार को अगर अमेरिका मदद करने का वैसा ही यकीन करते जैसा की चीन कर रहा है तो इमरान सरकार सीपीईसी को ख़त्म कर सकता है। पकिस्तान के इस रुख का चीन क्या जवाब देगा यह तो बाद की बात है लेकिन आर्थिक संकट से बेहाल पाकिस्तान के पास कोई चारा भी नहीं दिखता। खबर के मुताबिक़ पाकिस्तान की इमरान सरकार ने इस दिशा में काम करना भी शुरू कर दिया है।
दरअसल, पाकिस्तान एक बार फिर अमेरिका के साथ संबंधो को सुधारने की कोशिश कर रहा है। इसीलिए प्रधानमंत्री इमरान खान ने मोईद यूसुफ को पाक नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर यानी एनएसए नियुक्त किया है। एशिया टाइम्स ने अपनी एक रिपोर्ट में यह दावा किया है कि अगर पाकिस्तान को वाशिंगटन से इसी तरह की वित्तीय सहायता मिलती है तो वह चीन के साथ सीपीईसी को खत्म कर देगा। याद रहे इमरान खान कहते आए हैं कि चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर न केवल इस्लामाबाद के लिए बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए भी आर्थिक विकास लाएगा।लेकिन अब इमरान सरकार इस मसले पर फिर से सोंच रहे हैं और अमेरिका की तरफ देख रहे हैं।
इस तरह की कोशिशें पहले भी हुई हैं। जुलाई 2019 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के बेलआउट पैकेज के अलावा बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ। अमेरिका के साथ पाकिस्तान की बेहतर संबंध बनाने की संभावनाएं तब और कम हो गईं जब अमेरिका ने नवंबर 2021 में कतर को अफगानिस्तान में अपना राजनयिक प्रतिनिधि घोषित किया था।
फरवरी की शुरुआत में इमरान खान ने चीन इंस्टीट्यूट ऑफ फुडन यूनिवर्सिटी की सलाहकार समिति के निदेशक एरिक ली के साथ एक इंटरव्यू में कहा था कि “हम सीपीईसी और ग्वादर को भू-अर्थशास्त्र के लिए एक महान अवसर के रूप में देखते हैं।” साथ ही पाकिस्तान ने सीपीईसी के ‘कर्ज के जाल’ होने की खबरों को खारिज किया था। लेकिन अब वही इमरान सरकार को लगने लगा है कि पकिस्तान चीन के जाल में है और समय रहते इसे नहीं सुधारा गया तो आने वाले समय में पकिस्तान की हालत और भी ख़राब हो जाएगी।
उधर ,करीब दो साल से सीपीईसी पर काम बंद होने से चीन काफी नाराज है, क्योंकि वो इस प्रोजेक्ट पर करीब 16 अरब डॉलर खर्च कर चुका है। इमरान सरकार चीन को मनाकर इसे शुरू कराना चाहती है, लेकिन काम शुरू होता इसके पहले ही विरोध शुरू हो रहा है। बलूचिस्तान के ग्वादर में कई दिनों से पॉलिटिकल पार्टीज, सिविल राइट्स एक्टिविस्ट्स, मछुआरे समेत कई अन्य तबकों के लोग सीपीईसी के विरोध में सरकार विरोधी रैलियों में शामिल हो रहे हैं। इस विरोध की वजह से चीन भी नाराज है और पकिस्तान के साथ चीन के सम्बन्ध भी ख़राब हो रहे हैं। यहां के लोगों की मांग है कि सीपीईसी पर कोई भी काम शुरू करने से पहले बुनियादी सुविधाएं दी जाएं। इनमें गैरजरूरी चेक पॉइंट्स हटाना, पीने का पानी और बिजली मुहैया कराना, मछली पकड़ने के बड़े ट्रॉलर हटाना और ईरान बॉर्डर खोलना शामिल है।
अब देखने की बात यह है कि पाकिस्तान आगे क्या निर्णय लेता है। एक तरफ अब चीन भी उससे नाराज है और अगर अमेरिका ने उसकी मदद नहीं की तो पाकिस्तान के सामने संकट और भी गहरा सकते हैं। पाकिस्तान को उम्मीद है कि अमेरिका अगर उससे मदद करने का भरोसा दे तो वह चीन से सम्बन्ध तोड़ सकता है और सीपीईसी योजना को भी ख़ारिज कर सकता है।