सरकार ने अग्निपथ योजना की शुरुआत की, देश जलने लगा. पिछले कुछ दिनों से देश के कई इलाके जल रहे हैं. अग्निपथ योजना के खिलाफ युवा सड़कों पर हैं. गुस्साए युवा सरकारी संपत्ति को आग के हवाले कर रहे हैं. कई ट्रेनें जला दी गई. रेल की पटरियां उखाड़ दी गई. सरकारी भवन ध्वस्त कर दिए गए और इस खेल में न जाने कितने युवा घायल भी हुए और पकडे भी गए. बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में प्रदर्शन से भारी नुकसान हो चुका है, और देश के बाकी राज्यों में भी गुस्से की आग फैलती जा रही है. जो युवा कल तक बीजेपी के वोटर थे आज सरकार की नीतियों के खिलाफ हैं. सरकार ने अग्निपथ योजना के जरिये चुनावी लाभ लेने की कोशिश की, लेकिन खेल बिगड़ गया. आगे क्या होगा कोई नहीं जानता. लेकिन युवाओं का गुस्सा अगर ऐसे ही बढ़ता गया और इसकी आग फैलती ही गई तो देश को युवाओं का एक और आक्रोश झेलना पड़ सकता है. 1974 के छात्र आंदोलन को कैसे भुलाया जा सकता है ?
प्रदर्शनकारियों को नसीहत दी जा रही है कि वो अपना विरोध दर्ज करें, लेकिन शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक तरीके से. बात ठीक भी है, क्योंकि गुस्से में आकर तोड़फोड़ और आगजनी से हम अपने टैक्स की रकम से खड़ी की गई संपत्ति को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं और सरकार इस नुकसान की भरपाई भी जनता से ही करेगी. धन के नुकसान के अलावा हिंसा और उपद्रव से सही बात भी गलत दिशा में मुड़ जाएगी. इस वक्त सैकड़ों युवाओं पर पुलिस ने मामले दर्ज कर लिए हैं, जिससे उनका भविष्य खतरे में पड़ गया है.
लेकिन देश में हो रही इस तोड़-फोड़ के लिए सिर्फ नौजवान ही जिम्मेदार नहीं हैं, ये पूरा तंत्र और समाज भी इसका दोषी है, जिसने युवाओं को हिंसा की राह पर धकेल दिया है. नौजवानी और जोश हमेशा साथ-साथ चलते हैं, उस जोश को सही राह दिखाने का जिम्मा देश में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों पर होता है. मगर पिछले कुछ सालों में इस देश के युवा ने यही देखा है कि भीड़ की हिंसा को राजनैतिक समर्थन मिल रहा है, मीडिया की बहसों में अब केवल चीख-चिल्लाहटें नहीं होतीं, अपशब्दों का प्रयोग भी जायज़ हो गया है. उकसाने वाले शीर्षक और टैगलाइनों के साथ टीवी चैनलों पर बहसें होती हैं और सचमुच ये लगने लगता है कि हम किसी दंगल के मैदान में आ गए हैं. चुनावी मंचों से 80 बनाम 20, जिस चौराहे पर बुलाओगे आ जाऊंगा और ‘देश के गद्दारों को…’ जैसे जुमलों के साथ भाषण दिए जाते हैं. न्याय की आसंदी पर बैठे लोग अब नफरत भरे बोल में भावों की तलाश करने लगे हैं कि वो हंसते-हंसते कहे गए या क्रोध की मुद्रा में कहे गए. कबीर दास जी ने लिखा है – “करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय. बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाय.”
देश ने सालों साल नफरत और हिंसा की घुट्टी नयी पीढ़ी को पिलाई है तो अब वही सब उनके व्यवहार में प्रकट हो रहा है. दुख इस बात का है कि इसका खामियाजा भी युवाओं को ही भुगतना पड़ेगा, उन लोगों को नहीं, जिन्होंने खुद नफरत भरी राजनीति की हिमायत की है. ऐसी राजनीति सत्ता के लिए आगे भी चलती रहेगी, इसलिए फिलहाल प्रदर्शनकारियों से ही अपील की जा सकती है कि वो विरोध करने में धैर्य और संयम दोनों का परिचय दे. इस मामले में युवाओं को किसानों और शाहीन बाग की आंदोलनकारी महिलाओं और युवाओं से सीख लेनी चाहिए, जिन्होंने सत्ता की बेरूखी और उपेक्षा के बावजूद शांतिपूर्ण तरीके से अपना विरोध जारी रखा. इन आंदोलनों ने सत्ता को भीतर तक हिला दिया था. अगर कोरोना का संक्रमण न होता तो शाहीन बाग आंदोलन और लंबा खिंचता. वहीं किसान आंदोलन में साल भर बाद ही सही, लेकिन सरकार को कानून वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी. सरकार किसानों की कितनी शर्तें मानती है या कृषि कानूनों को किसी और तरीके से वापस ले आती है, ये दूसरा मुद्दा है. मगर इतनी बात तो तय है कि शाहीन बाग और किसान आंदोलन के कारण देश में लोकतांत्रिक विरोध की एक नयी नजीर पेश हुई है.
अग्निपथ योजना के विरोध में भी युवाओं को संगठित होकर गांधीवादी तरीके से रचनात्मक विरोध के बारे में विचार करना होगा. गुस्से में ऊर्जा का क्षरण होता है, शांति ऊर्जा का संचार करती है. वैसे ये देखकर आश्चर्य होता है कि प्रधानमंत्री मोदी युवाओं के इस विरोध पर खामोश क्यों हैं ? उन्होंने अपने भाषणों में कई बार युवा भारत की बात की है. देश के नौजवानों को हर साल 2 करोड़ नौकरियों का ही नहीं, स्टैंड अप और स्टार्ट अप इंडिया का सपना भी दिखाया है.
आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए उन्हें देशभक्ति का पाठ पढ़ाया. मोदी जी ने युवाओं को बताया था कि गिलास आधा भरा होता है, तो आधा खाली नहीं होता, बल्कि हवा से भरा होता है. इस तरह की उम्मीदें बंधाने वाले प्रधानमंत्री की ओर देश का युवा बड़ी हसरत से देख रहा था कि वो सचमुच न्यू इंडिया बनाएंगे. लेकिन अभी तो ऐसा कुछ होता नजर नहीं आता. बल्कि जो पुराना इंडिया है, वो भी टूटे सपनों की तरह बिखरता जा रहा है. अग्निपथ योजना में हरिवंश राय बच्चन की कविता अग्निपथ जैसा कुछ भी नहीं है. उस कविता में तो बच्चन जी ने लिखा है कि “यह महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु, स्वेद, रक्त से लथपथ, लथपथ लथपथ.” मगर अभी देश जिस अग्निपथ पर चल रहा है, उस में महानता का कोई दृश्य नहीं दिख रहा है. मनुष्य चल नहीं रहा है, बल्कि नौजवान चलती हुई ट्रेनों और बसों को रोक रहे हैं. वो लाचारी में आंसू, पसीना और खून सब बहा रहे हैं. “वर्दी दो या फिर अर्थी दो” जैसे नारे लगाने पर देश के नौजवान मजबूर हो गए हैं.
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने ‘अग्निपथ’ का विरोध कर रहे युवाओं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विश्वास करने का आह्वान किया है. उन्होंने युवाओं से आंदोलन समाप्त करने और चर्चा का रास्ता चुनने समेत योजना को विस्तार से समझने की अपील की है. श्री नड्डा देश की सत्तारुढ़ पार्टी के अध्यक्ष हैं, लेकिन सरकार के मुखिया तो नरेंद्र मोदी ही हैं, और फैसला भी सरकार का ही है, तो खुद मोदी जी युवाओं से आमने-सामने चर्चा के लिए क्यों आगे नहीं आते. जब वो “मन की बात” के लिए सुझाव मांग सकते हैं, तो कभी युवाओं का मन टटोलने की कोशिश क्यों नहीं करते ? एक बार मोदी जी ऐसा करके देखें, शायद देश के हालात सुधर जाएं.