अखिलेश अखिल
राहुल गांधी कर्नाटक के सिद्धगंगा मठ जैसे ही पहुंचे, बीजेपी की परेशानी बढ़ गई. मठ में राहुल गांधी ने पूजा अर्चना की, संतों से मिले और फिर स्थानीय लोगों के बीच पहुंचकर अपनी बात रखी. राहुल के इस खेल से बीजेपी कुपित हो गई. सूबे में राहुल के इस खेल को राजनीति से जोड़ा गया और स्थानीय ख़बरों में इसे लिंगायत समाज पर कांग्रेस की नजर के रूप में देखा गया. आने वाले चुनाव में राहुल के इस मठ यात्रा का कितना राजनीतिक असर होता है, इसे तो देखना होगा, लेकिन यह भी साफ़ है कि कांग्रेस की नजर इस लिंगायत समुदाय पर है जो अभी तक बीजेपी के साथ खड़ा है. बीजेपी को कर्नाटक में जीत दिलाने में इस समुदाय का बड़ा हाथ है क्योंकि इसकी आबादी 15 फीसदी से ज्यादा है. कर्नाटक में अगले साल विधान सभा चुनाव होने हैं.
जाहिर सी बात है पांच राज्यों में हार के बाद कांग्रेस कर्नाटक में अगले वर्ष होने वाले चुनाव पर अपना ध्यान लगाती नजर आ रही है. पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी गुरुवार को श्री सिद्धगंगा मठ पहुंचे. राहुल के इस दौरे को लिंगायत समुदाय को लुभाने की ओर एक कदम के तौर पर देखा जा रहा है. खास बात है कि हाल के समय में लिंगायत समुदाय ने बीजेपी और पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा का मजबूती से समर्थन किया है.
श्री श्री शिवकुमार स्वामी जी की 115वीं जयंती पर मठ पहुंचे राहुल ने कहा, ’12वीं सदी के समाज सुधारक बसवन्ना ने हमें सिखाया है कि हम एक हैं, हमें बगैर जाति, धर्म को देखें एक साथ रहना होगा और नफरत को दूर करना होगा.’ उन्होंने कहा, ‘जो भाईचारा आप यहां सिखाते हैं, वह आज पूरे देश के लिए जरूरी है.’ कांग्रेस नेता ने बताया कि उनकी दादी, पिता और मां भी मठ आ चुके हैं.
खास बात है कि श्री सिद्धगंगा मठ का इतिहास 600 साल पुराना है, और लिंगायत समुदाय के लिए यह सबसे पवित्र मठों में से एक है. यहां पहले भी पूर्व प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों की मौजूदगी देखी जा चुकी है. खास बात है कि सियासी दलों और उनके नेताओं तक पहुंच के लिए भी इस मठ की तरफ से मिले आशिर्वाद को भी काफी महत्वपूर्ण माना जाता है. अधिकांश चुनाव से पहले नेता यहां पहुंचते हैं.
भले ही पारंपरिक रूप से मठ सामाजिक और धार्मिक कार्यों के लिए जाने जाते हैं, लेकिन उनके कामकाज को जानने वाले बताते हैं कि इनमें से कुछ की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी है.
बता दें कि साल 2018 विधानसभा चुनाव से बमुश्किल तीन महीने पहले ही तत्कालीन सिद्धारमैया सरकार ने समुदाय को अलग धर्म का दर्जा दिया था. तब कांग्रेस लिंगायत समुदाय का समर्थन हासिल करने में असफल रही थी. माना जाता है कि कुल आबादी में लिंगायतों की हिस्सेदारी 15 फीसदी है. उस दौरान कांग्रेस के इस फैसले को भाजपा ने ‘हिंदू वोटर बेस’ तोड़ने की कोशिश के रूप में दिखाया था.
वहीं, कांग्रेस को ‘वीरशैव’ रखने के फैसले की कीमत सीटें गंवाकर चुकानी पड़ी थी. 2018 में कांग्रेस की सीटें 79 हो गईं थी. जबकि, 2013 में यह आंकड़ा 123 पर था. इसके चलते पार्टी को जनता दल (सेक्युलर) के साथ कम समय की सरकार बनानी पड़ी थी. खास बात है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां यह जानती हैं कि लिंगायत समुदाय राज्य के कई क्षेत्रों में चुनाव में बड़ी भूमिका निभा सकता है.
अगले साल के चुनाव में लिंगायत समुदाय की राजनीति क्या होती है इसे देखने की जरूरत है लेकिन यह भी साफ़ है कि येदुरप्पा के हटने के बाद इस समुदाय में काफी नाराजगी भी है. लिंगायतों की यह नाराजगी कांग्रेस के पक्ष में कितना फलदायक होगा इसे देखने की जरूरत है, लेकिन पिछले साल भर से प्रदेश कांग्रेस के कई नेता लिंगायतों में पानी पैठ बढ़ा रहे हैं.