Thursday, April 25, 2024
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गुजरात चुनाव : दो पत्रकारों की चुनावी पैतरेबाजी पर टिकी है कांग्रेस और आप की राजनीति 

अखिलेश अखिल

27 साल से गुजरात में चल रही बीजेपी की सरकार इस चुनाव में भी फिर से वापसी के लिए जोर लगाए हुए है. हिंदुत्व का प्रयोगशाला रहा गुजरात संघ और बीजेपी को खूब भाता रहा है. कह सकते है कि बीजेपी की असली राजनीति यही से शुरू हुई. एक समय था जब यही गुजरात छात्र आंदोलन का केंद्र बना था और जेपी की अगुवाई में देश खड़ा हुआ और इंदिरा गांधी की सरकार जमींदोज हो गई. तब भी गुजरात चर्चा में था, लेकिन सन 2000 के बाद गुजरात बीजेपी के खेमे में खड़ा हुआ. संघ की बड़े स्तर पर यहां शाखाएं खुली. बीजेपी की पैठ हुई और फिर नरेंद्र मोदी के हाथ गुजरात की सत्ता गई. करीब 13 साल तक मोदी इस राज्य के मुख्यमंत्री रहे. कहा जाता है कि गुजरात के लिए मोदी ने खूब काम किया. इसी बीच 2002 में वहां दंगे हुए और सरकार की खूब बदनामी हुई. नरेंद्र मोदी को अमित शाह जैसे नेता का साथ मिला. संघ की कृपा हुई और 2014 में नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने.

गुजरात देश में गुजरात मॉडल के रूप में प्रचारित हुआ. एक ऐसा राज्य जहां सबकुछ चकाचौंध से भरा था. अधिकतर कॉरपोरेट घराने वजन गए. अंबानी और अडानी जैसे उद्योगपति इसी गुजरात मॉडल के सहारे आगे बढ़ते गए. लेकिन इस दौर में गुजरात कई तरह की हिंसा के लिए बदनाम भी हुआ. दलितों को लेकर कई कथाएं सामने आई. पाटीदारों के आंदोलन हुए और हार्दिक पटेल जैसे युवा नेता देश की राजनीति में उभर कर सामने आए.

गुजरात से तीन युवा नेता उभरे. हार्दिक पटेल पाटीदार नेता के रूप में उभरे. जिग्नेश मेवानी दलित और एक्टिविस्ट नेता के रूप में सामने आए. अल्पेश ठाकोर पिछड़ी समाज के युवा नेता के रूप में उभरे. तीनो नेता एक बार कांग्रेस से जुड़े लेकिन हार्दिक और ठाकोर बीजेपी के साथ चले गए. लेकिन अब को गुजरात में होता दिख रहा है वह गुजरात के लिए नई बात है.

कहा जा रहा है कि मोदी और शाह के लिए गुजरात जीत जरूरी है. गुजरात की हार बीजेपी के लिए खतरनाक हो सकती है. हालाकि बीजेपी आज भी यहां मजबूत हालत में है, लेकिन इस बार उसे चुनौती पहले से कही ज्यादा और बड़ी है. बीजेपी को अब कांग्रेस से अलावा दिल्ली की आम आदमी पार्टी से भी जूझना पड़ रहा है. आप से बीजेपी कुछ ज्यादा ही असहज है.

इस चुनाव में बीजेपी को दो पत्रकारों से चुनौती मिल रही है. राजनीति के सारे छल प्रपंच के माहिर आप के इसदान गढ़वी पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री उम्मीदवार हैं तो कांग्रेस की तरफ से दलित जिग्नेश मवानी बीजेपी को हल्कान किए हुए हैं. मेवानी दलितों के चेहरा भी है और पत्रकार के साथ ही एक्टिविस्ट और वकील भी. मेवानी की अब देशव्यापी पहचान भी है और पहुंच भी. बीजेपी इन दो पत्रकारों के बीच फंस गई है.

गुजरात में दलितों के नेता के तौर पर उभरे जिग्नेश मेवाणी अभी वडगाम से विधायक है. गुजरात में इस साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव में वडगाम को बेहद ही हॉट सीट माना जा रहा है. इसी के मद्देनजर, वडगाम सीट पर बीजेपी ने जिग्नेश मेवाणी की जीत को रोकने के लिए एक बड़े चेहरे को मैदान में उतारने का मन बनाया है. बीजेपी को डर है कि मेवाणी को नही रोका गया तो दलित वोट उसके हाथ से निकल सकता है, लेकिन पत्रकार जिग्नेश को अपनी सीट भी जीतनी है और कांग्रेस के साथ दलितों को जोड़ना भी है.

आंकड़ों के अनुसार, गुजरात में दलितों का वोट प्रतिशत करीब 7 फीसदी है. वहीं, इस समय गुजरात के दलित आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा जिग्नेश मेवाणी को माना जा रहा हैं. गुजरात के मेहसाणा जिले में जन्मे जिग्नेश मेवाणी आजादी कूच आंदोलन चला चुके हैं. जिसमें उन्होंने लगभग 20 हजार दलितों को एक साथ मरे जानवर न उठाने और मैला न ढोने की शपथ दिलाई थी. दलित समाज उनके मुरीद हैं और बीजेपी के खिलाफ खड़ा है.

जिग्नेश मेवाणी के पिता नगर निगम के कर्मचारी थे. महात्मा गांधी की दांडी यात्रा से प्रेरणा लेते हुए जिग्नेश मेवाणी ने दलितों की यात्रा का आयोजन किया और उसे दलित अस्मिता यात्रा नाम दिया था. सोशल मीडिया में युवाओं का एक बड़ा तबका उन्हें बतौर नायक देखने लगा है. जिग्नेश दलित आंदोलन के दौरान एक काफी पॉपुलर नारा ‘गाय की पूंछ तुम रखो हमें हमारी जमीन दो’ दिया था. जिग्नेश बडगाम सीट से चुनाव लडेंगे. बता दें कि जिग्नेश मेवानी ने 2017 में बीजेपी के विजय चक्रवर्ती को 20 हजार वोटों से हराकर जीत दर्ज की थी. बीजेपी के लिए इस पर जीत हासिल करना एक बड़ी चुनौती है.

उधर, आम आदमी पार्टी ने गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए पत्रकार इसुदान गढ़वी को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम की घोषणा की. आम आदमी पार्टी ने गुजरात में भी वही प्रयोग किया है जो उसने पंजाब में किया था. गुजरात में आम आदमी पार्टी के सामने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर दो चेहरे इसुदान गढ़वी और गोपाल इटालिया सामने आए थे. इसुदान गढ़वी का पलड़ा भारी पड़ा. नतीजतन अरविंद केजरीवाल ने इसुदान गढ़वी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया.

इसुदान गढवी का जन्म 10 जनवरी, 1982 को जामनगर जिले के पिपलिया गांव में एक किसान परिवार में हुआ. उनके पिता खेराजभाई खेती करते हैं. राजनीति में कदम रखने से पहले इसुदान गढ़वी (एक पत्रकार थे. इसुदान गढ़वी ने अपनी शुरुआती पढ़ाई जाम खंभालिया में पूरी की. उन्होंने कॉमर्स से ग्रेजुएशन किया. बाद में गुजरात विद्यापीठ से पत्रकारिता की पढ़ाई की. इसुदान ने गुजरात के कई मीडिया संस्थानों में काम किया है. उन्होंने अपने करियर की शुरुआत में पोरबंदर के स्थानीय चैनल में एक रिपोर्टर के तौर पर काम किया. बाद में वह दूरदर्शन से भी जुड़े. साल 2015 में इसुदान एक प्रमुख गुजराती चैनल के संपादक बन गए. इस चैलन में उनका ‘महामंथन’ नाम का शो काफी चर्चित हुआ. इसमें किसानों और आम लोगों की समस्याओं पर चर्चा होती थी.

कहते हैं कि इसुदान गढवी को महामंथन शो से ही राज्य स्तरीय पहचान मिली. वह इस शो में देसी और बेबाक अंदाज में आम लोगों और किसानों की समस्याएं उठाते थे. यह शो गुजरात में बेहद लोकप्रिय हुआ. एक पत्रकार के तौर पर इसुदान गढवी अहमदाबाद, पोरबंदर, वापी, जामनगर और गांधीनगर जैसे कई शहरों में रिपोर्टिंग की.

गढ़वी ने पिछले साल पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में कदम रखा. तब उन्होंने घोषणा की थी कि वह राजनीति में भी आम लोगों और किसानों के लिए काम करेंगे. उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि आप मुझ पर भरोसा करें और विजयी बनाएं यदि मैंने आपके सपनों को साकार नहीं तो राजनीति छोड़ दूंगा. द्वारका जिले के पिपलिया गांव के किसान परिवार से आए इसुदान गढ़वी अन्य पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखते हैं, जो राज्य की आबादी का 48 फीसद है. बीजेपी के लिए गढ़वी बड़ी चुनौती बन कर उभरे हैं. अगर ओबीसी वोट पर ‘आप’ ने कब्जा कर लिया या बीजेपी के इस वोट में सेंध लगा दिया तो बीजेपी कही की नही रहेगी. बीजेपी की असली चिंता यही है. बता दें कि गुजरात के राजकोट, जामनगर, कच्छ, बनासकांठा, जूनागढ़ समेत कुछ अन्य जिलों में गढ़वी समाज की अच्छी संख्या है. गुजरात के लोग मानते हैं कि टीवी कार्यक्रम के जरिए गढ़वी ने किसानों के बीच अच्छी लोकप्रियता हासिल की है. वह किसानों के मुद्दों को लेकर आक्रामक रहे हैं. हाल ही में पशुपालकों ने सरकार के कुछ नियमों के खिलाफ हड़ताल की थी, इसकी पूरी रूपरेखा गढ़वी ने ही तैयार की थी. ऐसे में गढ़वी के जरिए आम आदमी पार्टी को किसानों का साथ मिल सकता है.

ऐसे में इस बार गुजरात चुनाव दिलचस्प हो चला है. एक तरफ विपक्ष में दो युवा पत्रकार बीजेपी को चुनौती दे रहे है तो दूसरी तरफ बीजेपी अभी भी धार्मिक खेल को ही अपना अस्त्र मान रही है. लेकिन गुजराती समाज में बेरोजगारी, गरीबी और झूठी राजनीति से बीजेपी अभी बैक फुट पर हो गई है. देखना होगा कि इस चुनाव में किसका मजमा कारगर होता है.

Anzarul Bari
Anzarul Bari
पिछले 23 सालों से डेडीकेटेड पत्रकार अंज़रुल बारी की पहचान प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया में एक खास चेहरे के तौर पर रही है. अंज़रुल बारी को देश के एक बेहतरीन और सुलझे एंकर, प्रोड्यूसर और रिपोर्टर के तौर पर जाना जाता है. इन्हें लंबे समय तक संसदीय कार्रवाइयों की रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव है. कई भाषाओं के माहिर अंज़रुल बारी टीवी पत्रकारिता से पहले ऑल इंडिया रेडियो, अलग अलग अखबारों और मैग्ज़ीन से जुड़े रहे हैं. इन्हें अपने 23 साला पत्रकारिता के दौर में विदेशी न्यूज़ एजेंसियों के लिए भी काम करने का अच्छा अनुभव है. देश के पहले प्राइवेट न्यूज़ चैनल जैन टीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर शो 'मुसलमान कल आज और कल' को इन्होंने बुलंदियों तक पहुंचाया, टीवी पत्रकारिता के दौर में इन्होंने देश की डिप्राइव्ड समाज को आगे लाने के लिए 'किसान की आवाज़', वॉइस ऑफ क्रिश्चियनिटी' और 'दलित आवाज़', जैसे चर्चित शोज़ को प्रोड्यूस कराया है. ईटीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर राजनीतिक शो 'सेंट्रल हॉल' के भी प्रोड्यूस रह चुके अंज़रुल बारी की कई स्टोरीज़ ने अपनी अलग छाप छोड़ी है. राजनीतिक हल्के में अच्छी पकड़ रखने वाले अंज़र सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय खबरों पर अच्छी पकड़ रखते हैं साथ ही अपने बेबाक कलम और जबान से सदा बहस का मौज़ू रहे है. डी.डी उर्दू चैनल के शुरू होने के बाद फिल्मी हस्तियों के इंटरव्यूज़ पर आधारित स्पेशल शो 'फिल्म की ज़बान उर्दू की तरह' से उन्होंने खूब नाम कमाया. सामाजिक हल्के में अपनी एक अलग पहचान रखने वाले अंज़रुल बारी 'इंडो मिडिल ईस्ट कल्चरल फ़ोरम' नामी मशहूर संस्था के संस्थापक महासचिव भी हैं.
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