![काफी मनोरंजक है पिछड़े वर्ग के नेताओं की अग्निपरीक्षा काफी मनोरंजक है पिछड़े वर्ग के नेताओं की अग्निपरीक्षा](https://freejournalmedia.in/wp-content/uploads/2022/02/Leaders-768x286.jpg)
यूपी में रविवार को पांचवे चरण के चुनाव होने हैं। कुल 12 जिलों की 61 सीटों पर ये चुनाव होंगे। इसके बाद चुनाव के दो चरण और पूरे होने हैं। इन तीन चरणों में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा सभी दलों के ओबीसी नेताओं की दाव पर लगी हुई है। सपा गठबंधन में शामिल नेताओं की प्रतिष्ठा भी दाव पर तो बीजेपी गठबंधन में शामिल ओबीसी नेताओं का मान सम्मान भी दाव पर लगा हुआ है। गठबंधन में शामिल नेताओं की जीत से उनके भविष्य की राजनीति तय होनी है तो हार के बाद कई तरह के खेल की संभावना से भी नकार नहीं किया जा सकता।
चुनावी मैदान में कहने के लिए तो सपा और बीजेपी में भिड़ंत है लेकिन बसपा और कांग्रेस की राजनीति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऊपर से देखने में बसपा और कांग्रेस पिछड़ती दिखती है लेकिन जिस तरह की भीड़ इनकी सभाओं में उमर रही है अगर वह वोट में तब्दील हो गया तो यूपी विधान सभा चुनाव का परिणाम त्रिशंकु भी हो सकता है और ऐसे में बसपा और कांग्रेस किंग मेकर की भूमिका में नजर आ सकती हैं। कांग्रेस के तरफ से बार -बार इस तरह के इशारे भी किये जा रहे हैं।
लेकिन यहां सवाल है कि जिन पिछड़ी जातियों के निर्णायक वोट पर यह चुनाव टिका हुआ है और जिन ओबीसी नेताओं के जरिए चुनाव परिणाम की समीक्षा की जा रही है ,अगर उसके नेता ही चुनावी मैदान में फस जाए तो क्या होगा ? आगामी तीन चरणों के चुनाव में ओबीसी नेताओं की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा होनी है।
बता दें कि राज्य के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य बीजेपी के चुनाव प्रचार अभियान में काफी आक्रामक तरीके से लगे हुए हैं और वह एक विधानसभा क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में व्यस्त हैं। वह कौशांबी जिले की सिराथु सीट से चुनाव लड़ रहे हैं और उनका मुकाबला समाजवादी पार्टी की पल्लवी पटेल से है। पल्लवी पहली बार चुनाव लड़ रही हैं लेकिन यहां के जातिगत समीकरण को लेकर वह काफी आश्वस्त हैं कि उनकी जीत तय है। ये पल्ल्वी पटेल अनुप्रिया पटेल की बहन है और कृष्णा पटेल की बेटी। गजब का खेल ये है कि अनुप्रिया पटेल अपनादल के एक गुट के साथ बीजेपी गठबंधन में है जबकि कृष्णा पटक का अपना दल सपा गठबंधन के साथ है। सिराथू सीट पर मौर्य समाज और पटेल समाज का दबदवा है। एक ही समुदाय के दो नेताओं के बीच की यह लड़ाई रोचक है और प्रतिष्ठा का सवाल भी। मौर्य को चुनाव में जीत मिलती है तब उनके भविष्य की राजनीति तय होगी और पटेल अगर चुनाव जीतती है तो सिराथू में एक नए समीकरण का जन्म होगा।
यह बात और है कि केशव प्रसाद मौर्य का प्रचार पल्लवी की बहन अनुप्रिया पटेल कर रही हैं लेकिन मौर्य को अपने विधानसभा क्षेत्र में मतदाताओं के असंतोष का सामना करना पड़ रहा है। मौर्य के खिलाफ बहुत से लोग कई तरह की बातें कर रहे हैं। अगर लोगों ने मौर्य के खिलाफ मन बना लिया तो बीजेपी को बड़ा झटक लग सकता है।
पिछड़ा वर्ग से एक अन्य प्रमुख नेता सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष और विधायक ओम प्रकाश राजभर हैं जिनका भाग्य आने वाले चरणों पर निर्भर करता है। राजभर गाजीपुर की जहूराबाद सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। बीजेपी ने उनके खिलाफ कालीचरण राजभर को खड़ा किया है जो उनकी वोटों में सेंध लगाएंगे।हालांकि राजभर को बीएसपी से सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है जिसने सपा की बागी उम्मीदवार शादाब फातिमा को मैदान में उतार दिया है। पूर्व विधायक शादाब फातिमा अपने निर्वाचन क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैं और इस सीट से जीतने को लेकर आश्वस्त भी हैं। राजभर सपा के साथ मिलकर बीजेपी को पटखनी देने का ऐलान कर चुके हैं लेकिन अगर उनको खुद पटखनी मिल गई तो खेल कुछ और ही हो सकता है। राजभर बेचैन और परेशानी से गुजर रहे हैं।
केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल को भी अपनी पार्टी अपना दल के लिए चुनाव के अगले चरणों में एक अग्नि परीक्षा का सामना करना पड़ रहा है, जिसने अब तक चुनाव में जोरदार सफलता दर देखी है। अपना दल एक कुर्मी-केंद्रित पार्टी है जिसे अनुप्रिया के पिता डॉ सोनेलाल पटेल ने बनाया था। हालांकि अनुप्रिया चुनाव नहीं लड़ रही हैं, लेकिन उनकी पार्टी के उम्मीदवार कथित तौर पर अपने निर्वाचन क्षेत्रों में सत्ता विरोधी लहर महसूस कर रहे हैं। अनुप्रिया खुद अपनी पार्टी के लिए जोरदार प्रचार कर रही हैं और उम्मीद करती हैं कि वह अपनी बाधाओं को दूर कर सफलता हासिल करेंगी और यह जीत उनका भविष्य भी तय करेगी। लेकिन उसकी असली लड़ाई तो अपनी माँ बहनो से ही है। सोनेलाल पटेल की विधवा कृष्णा पटेल हर हाल में अनुप्रिया पटेल को शिकस्त देने को तैयार है। उनके निशाने पर अनुप्रिया भी है और बीजेपी भी। खेल रोचक है।
निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद के लिए ये चुनाव करो या मरो का मामला है। वह बीजेपी के साथ गठबंधन में अपनी पार्टी की तरफ से अच्छा प्रदर्शन कर यह दिखा सकते हैं कि उनमें कितना दम हैं और इससे उनका भविष्य में बीजेपी के साथ रिश्ता तय होगा। निषाद समुदाय अनुसूचित जाति वर्ग में आरक्षण की मांग कर रहा है और संजय निषाद वादों के बावजूद बीजेपी को इसकी घोषणा करने के लिए मनाने में विफल रहे हैं। अगर उनकी पार्टी चुनावों में खराब प्रदर्शन करती है तो आने वाले समय में बीजेपी और उनका संबंध तय हो सकता है।
बीजेपी के पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य के लिए इस बार उनका चुनाव उनके राजनीतिक भविष्य के लिए अहम है। पिछले महीने बीजेपी छोड़कर सपा में शामिल हुए मौर्य कुशीनगर जिले के नए निर्वाचन क्षेत्र फाजिलनगर से सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं जबकि बीजेपी ने उनके सामने सुरेंद्र कुशवाहा को मैदान में उतारा है। मौर्य को बीजेपी से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है जो मौर्य को हराने और अपने ‘विश्वासघात’ का बदला लेने के लिए उत्सुक है।
अंतिम चरणों में एक अन्य ओबीसी नेता कृष्णा पटेल हैं, जो अपना दल से अलग हुए धड़े की मुखिया हैं। वह प्रतापगढ़ से समाजवादी पार्टी और अपना दल (के) के गठबंधन उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रही हैं। अनुप्रिया पटेल ने अपनी पार्टी को अपनी मां के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ने देने का फैसला किया है, जिससे कृष्णा पटेल के लिए राह आसान दिख रही है। बीजेपी ने अनुप्रिया पटेल को यह सीट दी थी। हालांकि, कृष्णा पटेल का आसपास की सीटों पर कितना असर है या नहीं, यह देखना बाकी है।
प्रदेश कांग्रेस समिति अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू कुशीनगर की तामकुहीराज विधानसभा सीट से चुनाव लड़ेंगे। लेकिन उनकी सीट भी इस बार सेफ नहीं है। लल्लू को सपा और बीजेपी के अलावा अपनी ही पार्टी के एक धड़े से चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। उनकी चुनावी जीत प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनका भविष्य भी तय करेगी।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में ओबीसी यानी पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा 52 फीसदी है। इसी वजह से 1990 के बाद इस जाति का राजनीति में दबदबा बढ़ गया। खासतौर से यादव जाति का. पिछड़ा वर्ग में सबसे ज्यादा 11% मतदाता हैं। इसी वजह से 1989 में सबसे पहले मुलायम सिंह, यादव जाति के मुखिया बनकर उभरे। हालांकि उससे पहले भी जनता पार्टी से राम नरेश यादव 1977 में मुख्यमंत्री बन चुके थे। मंडल कमीशन के बाद यादव जाति का मुलायम सिंह को पूरा समर्थन मिला जिसके बाद वे 1989 , 1993, 2003 में मुख्यमंत्री बने फिर 2012 में अखिलेश यादव सत्ता पर काबिज हुए। यादव जाति के मुख्यमंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव तीन बार सत्ता पर काबिज हुए फिर उनके बेटे अखिलेश यादव। अब यादव जाति की वोट बैंक में सेंध लगने लगी है। 2007 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को 72 फ़ीसदी यादव ने अपना वोट दिया था वहीं 2012 के विधानसभा चुनाव में यह घटके 63 फीसदी रह गया। जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में 66 फीसदी वोट मिले। वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में केवल 53 फ़ीसदी यादव ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया। जबकि 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को केवल 6 फीसदी यादव का वोट मिला था। वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में 27 फ़ीसदी यादवों का वोट भाजपा को मिला। इस तरह यादव जाति में भी भाजपा ने सेंध लगा दी है जिसके चलते कहा जा सकता है कि समाजवादी पार्टी का परंपरागत वोट बैंक अब कम हो रहा है। लेकिन इस चुनाव में यादव वोट किधर जाता है इसे देखना है। हालांकि यह भी सच है कि बीजेपी भी यादवों के बीच पहुँच गई है और यादवो का एक बड़ा तबका बीजेपी के साथ कोर वोटर के रूप में है।
उधर गई यादव पिछड़ी वोट बैंक की कहानी भी कम रोचक नहीं। 2022 के इस चुनाव में पिछड़ा वर्ग में शामिल 79 जातियों पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए राजनीतिक कसरत चल रही है। चार चरणों के चुनाव में गैर यादव पिछड़ी समाज ने जो वोट दिया है उसी के आधार पर माना जा रहा है कि सपा को बढ़त है लेकिन यह पूरा सच नहीं है।पिछड़ा वर्ग में यादव और गैर यादव धड़ों में बंटा हुआ है। जहां यादव 11 फ़ीसदी हैं तो वही गैर यादव 43 फ़ीसदी हैं। वही पिछड़ा वर्ग में यादव जाति के बाद सबसे ज्यादा कुर्मी मतदाताओं की संख्या है। इस जाति के मतदाता दर्जनभर जनपदों में 12 फ़ीसदी तक है। वहीं वर्तमान में अपना दल कि इस जाति पर मजबूत पकड़ है जो भाजपा की सहयोगी पार्टी है। वहीं पिछड़ा वर्ग में मौर्य और कुशवाहा जाति की संख्या प्रदेश के 13 जिलों में सबसे ज्यादा है। वहीं वर्तमान में स्वामी प्रसाद मौर्या और केशव प्रसाद मौर्य इस जाति के बड़े नेता के रूप में जाने जाते हैं। कभी दोनों नेता एक ही पार्टी बीजेपी में थे लेकिन अब स्वामी प्रसाद मौर्य सपा के साकत आकर बीजेपी को चुनौती दे रहे हैं।
ओबीसी में चौथी बड़ी जाति लोध है. यह जाति बीजेपी का परंपरागत वोट बैंक मानी जाती है। यूपी के दो दर्जन जनपदों में इस जाति के मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा है। वही लोधी नेता के रूप में कल्याण सिंह का नाम कौन भूल सकता है।
पिछड़ा वर्ग में पांचवीं सबसे बड़ी जाति के रूप में मल्लाह निषाद हैं। इस जाति की आबादी दर्जनभर जनपदों में सबसे ज्यादा है। गंगा किनारे बसे जनपदों में मल्लाह और निषाद समुदाय 6 से 10 फ़ीसदी है जो अपने संख्या के बलबूते चुनाव के परिणाम में बड़ा असर डालते हैं। वर्तमान में इस जाति के नेता के रूप में डॉक्टर संजय निषाद हैं जो भाजपा के साथ है। पिछड़ा वोट बैंक में राजभर बिरादरी की आबादी 2 फ़ीसदी से कम है लेकिन पूर्वांचल के आधा दर्जन जनपदों पर इनका खासा असर है। इसके बड़े नेता के रूप में ओमप्रकाश राजभर और अनिल राजभर की गिनती की जाती है। ओमप्रकाश राजभर जहां भाजपा से दूर सपा के साथ हैं. वहीं अनिल राजभर भाजपा में मंत्री हैं। जातियों की यह गोलबंदी बहुत कुछ कहती है। लेकिन मजे की बात यह है कि जातियों की राजनीति करने वाले नेताओं की ही प्रतिष्ठा दाव पर लगी है।