Friday, March 29, 2024
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आखिर जनगणना की तारीखें बार-बार क्यों बढ़ रही है ?

अखिलेश अखिल

जनगणना की तारीख फिर से आगे बढ़ गई है. ऑफिस ऑफ़ रजिस्ट्रार एंड सेंसस ने सभी राज्यों को पत्र लिखकर कहा है कि 30 जून 2023 तक सभी प्रशासनिक सीमाएं फ्रीज़ की जा रही हैं. बता दें कि एक बार सभी प्रशासनिक सीमाएं जब बंद हो जाती है, तब तीन महीने से पहले इस पर कोई करवाई नहीं होती. यानी कह सकते हैं कि तीन महीने के बाद ही अब जनगणना शुरू हो सकती है. और ऐसा हुआ तो साफ़ है कि 2021 में होने वाली जनगणना अब 2024 से पहले शायद ही हो पाए. केंद्र सरकार की तरफ से इस बार पांचवी बार जनगणना की तारीख बढ़ाई गई है. माना जा रहा है कि घरों की लिस्टिंग और एनपीआर को अपडेट करने का काम 30 सितम्बर 2020 तक होना था, लेकिन कोविंद की वजह से यह काम नहीं हो पाया और तारीखें आगे बढ़ती रही. तभी से यह सब लटका हुआ है.

बता दें कि हर जनगणना यानी सेंसस से पहले राज्यों को जिला, प्रखंड, शहर, कस्बा, पुलिस स्टेशन, तालुका, गांव, पंचायत आदि के नाम और क्षेत्र की सभी जानकारी रजिस्ट्रार जनरल एंड सेंसस कमिश्नर ऑफ इंडिया यानी आरजीआई को देना होता है. जिस किसी भी जगह का नाम या जियोग्राफी बदलता है, उसकी भी जानकारी आरजीआई को दिया जाता है. इसके 3 महीने बाद ही जनगणना शुरू होती है.

हालाकि रजनीतिक जानकार मानते हैं कि जनगणना में लेट होने की एक वजह जाति जनगणना की मांग भी है. बिहार, यूपी, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में राजनीतिक दल जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं. 2024 चुनाव से पहले जनगणना में जाति गणना शामिल नहीं होती है, तो ओबीसी समुदाय में केंद्र सरकार के खिलाफ स्ट्रांग मैसेज जाएगा. देश में आंदोलन शुरू हो सकता है. एक बड़ा वोट बैंक खिसक सकता है. संभव है कि इस वजह से केंद्र सरकार जनगणना को टाल रही हो.

हालांकि राजनीतिक जानकर साफ़ मानते हैं कि 2018 में केंद्र सरकार ने 2019 के लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए ओबीसी जनगणना करने का वादा किया था. अब सरकार का रुख बदल गया है. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में कहा है कि जाति गणना संभव नहीं है. जनगणना में उम्मीद के उलट कुछ जानकारी सामने आ सकती है. इसका परिणाम देश की राजनीति पर भी पड़ेगा. यही वजह है कि सरकार इसे लेकर टाल-मटोल कर रही है. हालाकि यह तो साफ़ है कि जनगणना रोकने के पीछे सरकार की मंशा कुछ और ही है. अगर कोरोना का ही बहाना मान लिया जाए तो क्या देश में कोई काम रुका पड़ा है? जनगणना हर दस साल पर होना जरुरी है. लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है. क्या आरजीआई देश के सामने आकर कोई तर्कपूर्ण सबब बता सकती है ? निश्चित तौर पर इसके पीछे सरकार की मंशा कुछ और ही लगती है.

भारत में जनगणना के 150 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि निश्चित अवधि में इसे पूरा नहीं किया जा रहा है. 81 साल पहले 1941 में अंतिम बार सेंसस अपने तय समय से लेट हुआ था, जब दुनिया में द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था. हालांकि, तब भी समय पर ही सर्वे करके डेटा जुटाया गया था, लेकिन इस डेटा को व्यवस्थित करने में वक्त लग गया था. 1961 में भारत और चीन के बीच जंग हो या फिर 1971 में बांग्लादेश को अलग करने के लिए पाकिस्तान से जंग. दोनों ही मौकों पर समय से जनगणना की गई. राज्यसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा था कि कोरोना महामारी की वजह से पहली बार जनगणना को रोका गया है.

1881 के बाद से ही भारत 10-10 साल के अंतराल पर जनगणना कराता है. फरवरी 2011 में 10-10 साल के अंतराल पर 15वीं बार जनगणना हुई थी. सेंसस ऑपरेशन के पूर्व जॉइंट डायरेक्टर ए.डब्लू. महात्मे के मुताबिक समय पर जनगणना होना बहुत जरूरी है. इसकी 4 वजहें हैं.

1881 के बाद हर 10 साल पर जनगणना होने की वजह से इस डेटा का तुलनात्मक अध्यन करना आसान होता है. समय पर जनगणना नहीं होने की एक बड़ी समस्या ये है कि डेटा गैप हो जाता है, जिससे एक खास समय का डेटा नहीं होता है.

जनगणना में लेट होने की वजह से करीब 10 करोड़ से ज्यादा लोगों को खाद्य सुरक्षा काननू के तहत फ्री में आनाज नहीं मिल रहा है. इसकी वजह यह है कि 2011 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर वर्ष 2013 में 80 करोड़ लोग फ्री में राशन लेने के योग्य थे, जबकि जनसंख्या में अनुमानित इजाफे के साथ 2020 में यह आंकड़ा 92.2 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है.

अगर समय पर जनगणना कराई जाती है तो बीते साल का इवैल्यूएशन, वर्तमान का सटीक वर्णन और भविष्य का अनुमान लगाना संभव होता है. और संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक किसी भी देश के आर्थिक और सामाजिक कल्याण के लिए तय समय पर जनगणना कराना जरूरी है. इसकी एक वजह यह है कि तय समय पर सेंसस होने की वजह से पंचायत और तालुका स्तर पर डेटा सरकार के पास पहुंचता है. इस डेटा के जरिए सरकार विकास योजनाओं को आम लोगों तक पहुंचाने का काम करती है.

क्या कोरोना की वजह से जनगणना में देरी सिर्फ भारत में हो रही है, या दूसरे देशों में भी ऐसे हालात हैं? इसका जबाव तो यही है कि इस तरह की बात केवल भारत में ही देखने को मिल रही है. अमेरिका में कोरोना पीक पर होने के बावजूद 2020 में जनगणना कराई गई. इसी तरह से इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और आयरलैंड में अलग-अलग एजेंसियों ने कोरोना लहर के दौरान तय समय पर अपने देश में जनगणना के लिए डेटा जुटाना शुरू कर दिया था.

अब इन देशों की एजेंसियां डेटा को व्यवस्थित करके इसका एनालिसिस कर रही है. पड़ोसी देश चीन ने भी अपने यहां कोरोना महामारी के दौरान तय समय पर जनगणना कराई थी. यहां सेंसस के बाद सभी मेजर फाइंडिंग सामने आ गई हैं.

सच तो यही है कि केंद्र सरकार जातीय जनगणना से डर रही है. बीजेपी को लगता है कि अगर जातीय जनगणना के जरिए जातियों की आबादी लोगों के सामने आती है तो उसके मुताबिक आरक्षण की नयी राजनीति शुरू हो सकती है. उदहारण के तौर पर अभी ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण का लाभ मिलता है. लेकिन ओबीसी की आबादी अगर ज्यादा बढ़ती है तो आरक्षण की मांग बढ़ेगी. फिर ओबीसी के भीतर भी तमाम जातियां अपनी आबादी के मुताबिक आरक्षण की मांग करेंगी. इसके साथ भी कई और तरह के पेंच सामने आएंगे. बीजेपी इससे डर रही है. बीजेपी अभी तक ओबीसी के बड़े वोट बैंक पर कब्ज़ा किये हुए है. उसे लगता है कि जब इस समाज के भीतर की जातियों की आबादी बढ़ती है तो बीजेपी का खेल ख़राब होगा और इसका असर चुनाव पर पडेगा.

बिहार में जातीय जनगणना की शुरुआत हो चुकी है. बिहार देश का पहला राज्य है जो पाने खर्च पर जातीय जनगणना करा रहा है. बीजेपी के लिए यह लिटमस टेस्ट की तरह है. अगर बिहार में इस जनगणना का राजनीतिक असर पड़ेगा तो बीजेपी फिर आगे सोच सकती है. अगर जनगणना का असर उसके पक्ष में आएगा तो संभव है कि देश भर में जातीय जनगणना की शुरुआत हो. और ऐसा नहीं हुआ तो फिर आगे की राजनीति जटिल होगी. क्योंकि कई और राज्य भी जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं.

Anzarul Bari
Anzarul Bari
पिछले 23 सालों से डेडीकेटेड पत्रकार अंज़रुल बारी की पहचान प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया में एक खास चेहरे के तौर पर रही है. अंज़रुल बारी को देश के एक बेहतरीन और सुलझे एंकर, प्रोड्यूसर और रिपोर्टर के तौर पर जाना जाता है. इन्हें लंबे समय तक संसदीय कार्रवाइयों की रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव है. कई भाषाओं के माहिर अंज़रुल बारी टीवी पत्रकारिता से पहले ऑल इंडिया रेडियो, अलग अलग अखबारों और मैग्ज़ीन से जुड़े रहे हैं. इन्हें अपने 23 साला पत्रकारिता के दौर में विदेशी न्यूज़ एजेंसियों के लिए भी काम करने का अच्छा अनुभव है. देश के पहले प्राइवेट न्यूज़ चैनल जैन टीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर शो 'मुसलमान कल आज और कल' को इन्होंने बुलंदियों तक पहुंचाया, टीवी पत्रकारिता के दौर में इन्होंने देश की डिप्राइव्ड समाज को आगे लाने के लिए 'किसान की आवाज़', वॉइस ऑफ क्रिश्चियनिटी' और 'दलित आवाज़', जैसे चर्चित शोज़ को प्रोड्यूस कराया है. ईटीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर राजनीतिक शो 'सेंट्रल हॉल' के भी प्रोड्यूस रह चुके अंज़रुल बारी की कई स्टोरीज़ ने अपनी अलग छाप छोड़ी है. राजनीतिक हल्के में अच्छी पकड़ रखने वाले अंज़र सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय खबरों पर अच्छी पकड़ रखते हैं साथ ही अपने बेबाक कलम और जबान से सदा बहस का मौज़ू रहे है. डी.डी उर्दू चैनल के शुरू होने के बाद फिल्मी हस्तियों के इंटरव्यूज़ पर आधारित स्पेशल शो 'फिल्म की ज़बान उर्दू की तरह' से उन्होंने खूब नाम कमाया. सामाजिक हल्के में अपनी एक अलग पहचान रखने वाले अंज़रुल बारी 'इंडो मिडिल ईस्ट कल्चरल फ़ोरम' नामी मशहूर संस्था के संस्थापक महासचिव भी हैं.
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