Friday, March 29, 2024
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लखनऊ कैंट सीट के लिए हाँफते बीजेपी के ब्राह्मण चेहरे

लखनऊ कैंट सीट पर उम्मीदवारी को लेकर बीजेपी के भीतर ही आधा दर्जन से ज्यादा नेता उतावले हैं। पार्टी असमंजस में है कि आखिर यह सीट किसे दिया जाए ताकि जीत सुनिश्चित हो सके। जिस तरह से विपक्ष इस सीट पर घेराबंदी कर रहा है उससे बीजेपी की परेशानी बढ़ गई है। यह माना जा रहा है कि जिन उम्मीदवारों को यह सीट हासिल नहीं होगी ,वे पार्टी से बगावत कर दूसरी राह अपना सकते हैं। बीजेपी इससे भयभीत है।

इस सीट पर अभी बीजेपी का ही कब्ज़ा है लेकिन इस चुनाव में बीजेपी  सांसद रीता बहुगुणा अपने बेटे मयंक बहुगुणा के लिए यह सीट चाह रही है। रीता बहुगुणा का तर्क है कि इस सीट से वह काफी समय से चुनाव जीतती रही है। 2017 के चुनाव में भी रीता ने यह सीट जीती थी लेकिन 2019 के चुनाव में जब वह सांसद बनी तब इस सीट को छोड़ना पड़ा था। फिर इस सीट से बीजेपी के उम्मीदवार की जीत हुई। लेकिन अब फिर से रीता बहुगुणा यह सीट अपने बेटे के लिए मांग रही है। रीता बहुगुणा ने मंगलवार को मीडिया से कहा कि उनका बेटा मयंक पिछले 12 सालों से पार्टी के लिए काम कर रहा है। उसका अधिकार है कि वह टिकट मांगे। उन्होंने मीडिया से कहा कि पार्टी के आलाकमान उनके बेटे की प्रोफाइल की जांच कर रहे हैं। वही तय करेंगे कि मयंक को टिकट मिले या नहीं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने आखिरी चुनाव साल 2019 में लड़ा था। अब वह कोई चुनाव नहीं लड़ने वाली हैं। ऐसे में उनके स्थान पर उनके बेटे को टिकट दिया जा सकता है।
उन्होंने एक सवाल के जवाब में यह भी कहा कि इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं।  इसके बदले में उनके बेटे को टिकट दिया जा सकता है। उन्होंने एक बयान देते हुए कहा कि प्रदेश में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें नेता के बच्चों को पार्टी ने टिकट दिया है। मगर वह दूसरों का उदाहरण नहीं देना चाहती हैं। पार्टी को ही यह तय करना चाहिए कि उनके बेटे को टिकट दिया जाए या नहीं।  उन्होंने यह भी भरोसा जताया है कि उनके बेटे को टिकट मिले या नहीं वह प्रदेश की राजनीति में भाजपा के साथ ही रहेंगी।

कैंट विधानसभा सीट  पर अब तक 17 बार चुनाव हुए हैं। इसमें ज्यादातर ब्राह्मण प्रत्याशियों का ही दबदबा रहा है। इस सीट पर सबसे ज्यादा 12 बार ब्राह्मण प्रत्याशियों ने ही बाजी मारी है।  यहां सबसे ज्यादा तीन-तीन बार 1989, 85, 89 में कांग्रेस की प्रेमवती तिवारी और 1996, 2002, 2007, 2019 में बीजेपी के सुरेश चंद्र तिवारी चुनाव जीतने में सफल रहे हैं। दो बार रीता बहुगुणा जोशी भी इस सीट  से चुनाव जीती हैं।  2012 में कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुनी गई, वहीं 2017 में वह बीजेपी के टिकट पर विधानसभा पहुंचीं थीं।
लेकिन मामला केवल रीता बहुगुणा तक का ही नहीं है। लखनऊ की कैंट सीट भाजपा के लिए एक अनार सौ बीमार जैसी हो गई है। सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव इसी सीट से भाजपा के टिकट के लिए अड़ी हैं। भाजपा की मुश्किल ये है कि पार्टी के कद्दावर भी इसी सीट से दावेदारी ठोंक रहे हैं।  इस रेस में राज्य के डिप्टी सीएम दिनेश शर्मा भी शामिल हैं।

अगर डिप्टी सीएम  दिनेश शर्मा लखनऊ से चुनावी समर में उतरते है तो फिर कैंट उनकी पहली पसंद है। लखनऊ के मेयर रहे दिनेश शर्मा को भी लगता है कि कैंट के ब्राह्मण मतदाता उन्हें विधानसभा तक पहुंचा देंगे। योगी सरकार में मंत्री रहे महेंद्र सिंह को भी कैंट सीट का दावेदार माना जा रहा है। इसके अलावा लखनऊ की मेयर संयुक्ता भाटिया अपनी बहू रेशू भाटिया को कैंट से टिकट दिलवाने के लिए दिल्ली से लेकर संघ तक खेमेबंदी कर रही हैं। जानकारों की मानें तो उन्होंने इसके लिए दिल्ली दरबार से संघ के बड़े पदाधिकारियों तक संपर्क तेज कर दिया है। इस विधानसभा क्षेत्र में सिंधी, पंजाबी और पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए लोगों की बड़ी आबादी है। माना जाता है कि इस आबादी में भाटिया परिवार की बड़ी पहुंच है।

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इतना ही नहीं, इस रेस में युवा मोर्चा के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री अभिजात मिश्रा का नाम भी शामिल हैं। अभिजात मिश्रा भाजपा की ब्राह्मण समन्वय समिति के सदस्य भी हैं और लखनऊ के कैंट विधानसभा से दावेदार भी। खबर यह भी है कि भाजपा का एक धड़ा कैंट सीट से रक्षामंत्री और लखनऊ के सांसद राजनाथ सिंह के बेटे नीरज सिंह को चुनाव लड़वाने की पैरवी करने में जुटा है। कैंट विधानसभा से ही लालकुआं वार्ड के पार्षद सुशील तिवारी पम्मी भी दावेदारी करते हुए दिल्ली दरबार के संपर्क में हैं।

        कुल मिलकर कैंट सीट को लेकर बीजेपी फस गई है। बीजेपी यह सीट अब किसे देगी ,देखना होगा लेकिन यह भी माना जा रहा है कि सीट न मिलने के कारण पार्टी के कई नेता पाला बदल सकते हैं और ऐसा हुआ तो बीजेपी का खेल यहां ख़राब हो सकता है।
अखिलेश अखिल
अखिलेश अखिल
पिछले 30 वर्षों से मिशनरी पत्रकारिता करने वाले अखिलेश अखिल की पहचान प्रिंट, टीवी और न्यू मीडिया में एक खास चेहरा के रूप में है। अखिल की पहचान देश के एक बेहतरीन रिपोर्टर के रूप में रही है। इनकी कई रपटों से देश की सियासत में हलचल हुई तो कई नेताओं के ये कोपभाजन भी बने। सामाजिक और आर्थिक, राजनीतिक खबरों पर इनकी बेबाक कलम हमेशा धर्मांध और ठग राजनीति को परेशान करती रही है। अखिल बासी खबरों में रुचि नहीं रखते और सेक्युलर राजनीति के साथ ही मिशनरी पत्रकारिता ही इनका शगल है। कंटेंट इज बॉस के अखिल हमेशा पैरोकार रहे है।
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