Friday, April 19, 2024
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इस लोकतंत्र में आदिवासी किसी प्रोडक्ट से ज्यादा कुछ भी नहीं !

अखिलेश अखिल

 

खद्दरधारी नेता लम्बे समय तक गाँधी की टोपी और खादी के कपड़े पहनकर देश को लूटते रहे, बेवकूफ बनाते रहे. आज भी अधिकतर नेता खादी पहनते हैं. लेकिन आज तक कोई गाँधी नहीं बन सका. नकली आवरण से कोई गाँधी कैसे बन सकता है ! नेतागिरी और राजनीति प्रपंच है. जो जितना बड़ा प्रपंची है, वह उतना बड़ा सफल नेता. अब कई दलों ने अपने आवरण के रंग को बदला है. इंद्रधनुष में सात रंग हैं. टटोल कर देखियेगा तो बदलते समय में सभी रंगों को राजनीतिक दलों ने अपना लिया है. अब इन रंगों के सामने गाँधी की खादी फीकी पड़ गई है. नेताओं को भी खादी से ऊब हो रही थी. झूठी राजनीति, झूठे आचरण और झूठी कस्मे वादे की वजह से वो हर जगह बेइज्जत होते. उनकी इस बेइज्जती में गाँधी की खादी भी लज्जित हो जाती. नेता जन गाँधी को और ज्यादा लज्जित नहीं कर सकते थे. लबादा ही बदल दिया.

इसी झूठी राजनीति के फेर में अभी आदिवासी समाज जकड़ा हुआ है. नेताओं की वक्र दृष्टि उन पर है. सभी जातियों की राजनीति अब समाप्त हो गई. जातियों से बड़ा धरम होता है. जाति चाहे जो भी हो धर्म तो सबका भारतीय ही है. लेकिन यह भारतीय वाला खेल भला नेताओं को नहीं सुहाता. हिन्दू – मुसलमान अब देश में दो ही बड़े धर्म है. हिन्दू धर्म के मानने वाले यहाँ 80 फीसदी लोग है. यह बात और है कि जातियों में बंटा यह हिन्दू एक दूसरे को देखना नहीं चाहता. सबसे ज्यादा ऊंच – नीच की भावना इसी धरम में है. लेकिन धर्म के नाम पर राजनीति चलती है और इसके फल भी दीखते हैं.

तो अब बारी आदिवासी की है. क्षेत्रीय स्तर पर आदिवासियों की राजनीति कई दल करते हैं. और फसल भी काटते हैं. लेकिन आदिवासी कहाँ और कैसे है इससे दलों को कोई वास्ता नहीं. जो आगे निकल गया. इस समाज से वह नेता बन गया. जो नहीं निकला. वह शोषण का शिकार बनता गया. अब संभवतः देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने जा रही है. आदिवासी समाज को लगता होगा कि इससे आदिवासियों का गौरव बढ़ेगा. श्यादा ऐसा संभव भी हो. लेकिन सच है कि अब दलों के निशाने पर आदिवासी वोट बैंक है. अगले चुनाव में आदिवासी कार्ड खूब चलेंगे. फिर सत्ता हाथ लगेगी.

कोई सवाल पूछेगा कि क्या किसी के राष्ट्रपति बन जाने, किसी के प्रधान मंत्री, किसी के मुख्यमंत्री बन जाने से आम आदिवासी को क्या लाभ ? इसी देश में लम्बे समय तक वोट नहीं होते हुए भी सवर्णो ने राज किया. ब्राह्मणो, राजपूतों भूमिहारों ने सत्ता का खेल किया. लेकिन क्या इससे सभी सवर्ण की काया बदल गई ? उनकी गरीबी, उनकी बेकारी समाप्त हो गई ? सवर्णो की सत्ता ने सबसे ज्यादा सवर्णो को ही दुःख पहुँचाया.

समय बदला तो पिछड़ों और दलितों की बारी आयी. तरह – तरह के लोग राजनीति में पहुंचे. सत्ता पर विराजमान हुए. जाति और समाज के नाम पर खूब वोट बटोरे गए. जनता से लुटे पैसे को जनता में बांटकर आगे बढ़ते गए. अभी लम्बे समय तक पिछड़ों और दलितों की राजनीति चलेगी. चुकी वोट उनका है. तो सत्ता भी उनकी होनी चाहिए.

अब आदिवासी की बारी है. एक उदाहरण पेश है आदिवासी को लेकर. खबर है कि बस्तर के दंतेवाड़ा जेल से करीब 110 आदिवासियों को एनआईए की अदालत ने रिहा किया है. ये आदिवासी पिछले पांच साल से बिना कसूर के जेल में बंद थे. जेल में बंद तो पुलिस और एनआईए वालों ने सदा के लिए किया था. लेकिन पुलिसियां तंत्र की धज्जी उड़ी, उनकी मक्कारी सामने आयी और वो रिहा हो गए. बस्तर में किसी घटना के बाद किस तरह आदिवासियों की बिना जांच-पड़ताल के गिरफ़्तारियां होती हैं, बुरकापाल उसका एक बड़ा उदाहरण है.

बता दें कि नक्सलियों ने 24 अप्रैल, 2017 को सुकमा में बुरकापाल के पास सीआरपीएफ की एक टीम पर घात लगाकर हमला किया था, जिसमें अर्धसैनिक बल की 74वीं बटालियन के 25 जवानों की मौत हो गई थी. इसके बाद पुलिसिया तंत्र ने आसपास के गांव के निर्दोष आदिवासी युवाओं को पकड़ा, उन पर तरह – तरह के आरोप लगाए, नक्सली साबित करने की धाराएं लगाई और यूएपीए की धारा लगाकर सदा के लिए जेल में बंद कर दिया.

मानवाधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया ने कहा, “इस मामले में एनआईए की अदालत और हाई कोर्ट ने आदिवासियों की ज़मानत याचिका गंभीर आरोपों के कारण ख़ारिज कर दी थी. अभियुक्तों की संख्या अधिक होने के कारण उनको पेशी की तारीख़ पर कोर्ट में हाज़िर नहीं किया जाता था. पूरे पाँच साल में उनको केवल दो बार ही कोर्ट लाया गया. बेगुनाहों को अपनी बेगुनाही साबित करते – करते पाँच साल लग गए. क्योंकि कार्यवाही अत्यंत धीमी गति में चल रही थी. आरोप पत्र पेश होने में ही चार साल लग गए. उसके बाद अगस्त 2021 में परीक्षण शुरू हुआ.”

अब पांच साल बाद उसी एनआईए की अदालत ने उन सभी आदिवासी युवाओं को बरी किया है. एनआईए के विशेष न्यायाधीश ने अपने फ़ैसले में कहा, ” इस प्रकरण में उपलब्ध किसी भी अभियोजन साक्षियों के द्वारा घटना के समय मौक़े पर इन अभियुक्तों की उपस्थिति और पहचान के संबंध में कोई कथन नहीं किया गया है. इन अभियुक्तों के पास से कोई घातक हथियार भी नहीं मिला था.”

ऐसे में बड़ा सवाल है कि आदिवासियों की राजनीति करने वाली कोई भी पार्टी क्या इन बर्बाद हो चुके आदिवासी युवाओं को मुआबजा देगी ? क्या सरकार पुलिस और एनआईए पर कोई करवाई करेगी ? क्या सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर कोई बड़ा निर्णय लेगा. ताकि आगे से कोई बिना सबूत के आदिवासियों को देशद्रोही, नक्सली नहीं बता सके. उनकी जिंदगी बर्बाद नहीं कर सके.

दरअसल मौजूदा वक्त में आदिवासी राजनीति के लिए किसी प्रोडक्ट से कम नहीं. सबने बारी – बारी से उस समाज को ठगा है. जो इस देश का असली हकदार है. वह अब किरायेदार की भूमिका में है. सरकार और सरकार के भीतर बैठे आदिवासी नेता इसके लिए सबसे ज्यादा गुनहगार हैं.

Anzarul Bari
Anzarul Bari
पिछले 23 सालों से डेडीकेटेड पत्रकार अंज़रुल बारी की पहचान प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया में एक खास चेहरे के तौर पर रही है. अंज़रुल बारी को देश के एक बेहतरीन और सुलझे एंकर, प्रोड्यूसर और रिपोर्टर के तौर पर जाना जाता है. इन्हें लंबे समय तक संसदीय कार्रवाइयों की रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव है. कई भाषाओं के माहिर अंज़रुल बारी टीवी पत्रकारिता से पहले ऑल इंडिया रेडियो, अलग अलग अखबारों और मैग्ज़ीन से जुड़े रहे हैं. इन्हें अपने 23 साला पत्रकारिता के दौर में विदेशी न्यूज़ एजेंसियों के लिए भी काम करने का अच्छा अनुभव है. देश के पहले प्राइवेट न्यूज़ चैनल जैन टीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर शो 'मुसलमान कल आज और कल' को इन्होंने बुलंदियों तक पहुंचाया, टीवी पत्रकारिता के दौर में इन्होंने देश की डिप्राइव्ड समाज को आगे लाने के लिए 'किसान की आवाज़', वॉइस ऑफ क्रिश्चियनिटी' और 'दलित आवाज़', जैसे चर्चित शोज़ को प्रोड्यूस कराया है. ईटीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर राजनीतिक शो 'सेंट्रल हॉल' के भी प्रोड्यूस रह चुके अंज़रुल बारी की कई स्टोरीज़ ने अपनी अलग छाप छोड़ी है. राजनीतिक हल्के में अच्छी पकड़ रखने वाले अंज़र सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय खबरों पर अच्छी पकड़ रखते हैं साथ ही अपने बेबाक कलम और जबान से सदा बहस का मौज़ू रहे है. डी.डी उर्दू चैनल के शुरू होने के बाद फिल्मी हस्तियों के इंटरव्यूज़ पर आधारित स्पेशल शो 'फिल्म की ज़बान उर्दू की तरह' से उन्होंने खूब नाम कमाया. सामाजिक हल्के में अपनी एक अलग पहचान रखने वाले अंज़रुल बारी 'इंडो मिडिल ईस्ट कल्चरल फ़ोरम' नामी मशहूर संस्था के संस्थापक महासचिव भी हैं.
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