Thursday, March 28, 2024
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गुजरात – हिमाचल के चुनावी परिणाम बहुत कुछ कहते हैं 

अखिलेश अखिल

सच तो यही है कि जो जीता वही सिकंदर. यह भी सच है कि आज की तारीख में बीजेपी सबपर भारी है और पीएम मोदी सिकंदर की तरह हैं. मोदी की पूरी राजनीति जीत में निहित हैं, और जीत से बड़ा सच क्या हो सकता है ! इसी जीत की वजह से एक ब्रम्ह वाक्य निकलता है – देश में लोग बीजेपी के खिलाफ हैं तो बीजेपी की जीत कैसे होती है ? यह ऐसा सवाल है जिसका जवाब आसान नहीं. लोकतंत्र में हार और जीत चलती रहती है लेकिन किसी एक नेता और पार्टी की लगातार जीत यह जरूर बताती है कि या तो हमारे लोकतंत्र में खोट है या इस देश की राजनीति ने संविधान के खिलाफ लोगों को खड़ा करके लोकतंत्र का एक नाय पाठ शुरू किया है.

ज़रा सोंचिये ! जिस देश की आधी से ज्यादा आबादी गरीब और बेकारी से परेशान है और पूरा समाज महंगाई और धार्मिक खेल से परेशान है तब भी वहाँ की जनता अगर एक ही पार्टी और चेहरे को पसंद करती है तो इसे क्या कहा जाए ? लगता है यह मदारी युग है जहां मदारी का खेल सबको आकर्षित करता है और जनता को वह दवा भी लेने को बाध्य करता है जिसे मदारी अंत में बेचता है. गरीब जनता मदारी का खेल इसलिए देखने जाती है कि शायद उसका कायाकल्प हो जाएगा लेकिन अंत में वह अपनी जेब कटवाकर ही वापस लौटती है.

देश, समाज और राजनीति का यह नया खेल बेहद मनोरंजक है. ऐसे में एक बड़ा सवाल है कि जब देश में सबकुछ ठीक ही हो रहा है, बदलाव की कोई जरूरत नहीं तो लोकतंत्र के नाम पर चुनाव की जरूरत ही क्या है ? आखिर इससे देश को मिलता ही क्या है ? वही बात और वही चेहरे ! पूर्व की राजनीति हो या फिर मौजूदा राजनीति. कहानी तो यही देखने को मिलती है कि जब कोई भी सत्ता जड़ पकड़ लेती है तो जनता के दुःख बढ़ जाते हैं. कांग्रेस की पुराने राजनीति भी इसी ढर्रे पर चलती थी. कांग्रेस अच्छा करे या बुरा लोग यह मानकर चलते थे कि जो हो रहा है वह ठीक ही है. वही हाल आज भी है. हालांकि 90 से पहले का दौर कुछ और ही था, लेकिन अब दौर बदल गया. पहले संविधान और संविधानिक संस्थाओं पर हमले नहीं थे लेकिन जैसे ही अब हमले बढ़े तो एक नई विचारधार सामने आयी. यह विचारधारा भी लोगों को पसंद हैं. वोटों की राजनीति में ऐसे लोगों की संख्या कुछ ज्यादा ही है जो यह तो जानते हैं कि देश में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा, लेकिन उनकी हिम्मत बदलाव के लिए तैयार भी नहीं है. कांग्रेस के जमाने में गरीब लोग उसके साथ थे अब के जमाने में धार्मिक उन्माद को पसंद करने वाले और एक नाम केवलं को समर्पित लोग ज्यादा मुखर हैं. ऐसे दौर में लोकतंत्र की कहानी बहुत कुछ कहती है.

हालिया गुजरात और हिमाचल चुनाव के परिणाम दो दिनों बाद चाहे जो भी आये लेकिन इतना तो साफ़ हो ही गया है कि बीजेपी आगे चल रही है. उसकी जीत पक्की है. गुजरात में सातवीं बार वह सरकार बनाने की तरफ बढ़ रही है और हिमाचल में भी वह परम्परा को ढाहती दिख रही है. इस पुरे खेल में ‘आप’ जैसी पार्टी तेजी से उभर रही है. उसे हार जीत से अभी ज्यादा मतलब नहीं लेकिन कांग्रेस को जमींदोज करने में उसकी भूमिका बीजेपी से कही ज्यादा होती जा रही है.

कांग्रेस को गुजरात में ज़रूर बड़ा नुक़सान होने वाला है. हालाँकि चालीस-पैंतालीस सीटें उसकी जो पक्की होती हैं वह उतनी ही उम्मीद रखे तो बेहतर होता. दरअसल, आम आदमी पार्टी गुजरात में दस के आस-पास या दस के भीतर ही सीट ला पाएगी, लेकिन एग्जिट पोल बताते हैं कि गुजरात में ‘आप’ सीटें भले ही कमा नहीं पाई हो, लेकिन उसने कांग्रेस को बहुत बड़ा गच्चा दे दिया है. इसका सीधा फ़ायदा बीजेपी को होता दिखाई दे रहा है. वर्षों बाद कांग्रेस गुजरात चुनाव में दिखाई ही नहीं दी.

गाँवों में जहां उसका दबदबा रहता था, वहाँ उसे आप ने बुरी तरह नुक़सान पहुँचाया. आप ने नुक़सान बीजेपी को भी पहुँचाया, लेकिन इनमें ज़्यादातर सीटें शहरों की थीं इसलिए उन सीटों पर बीजेपी की जीत का अंतर कम हो जाएगा, पर उसे सीटों का नुक़सान न के बराबर होगा. शुरू से बीजेपी की रणनीति भी यही थी जिसके तहत उसने आप पार्टी जिसका इस बार राज्य में सबसे ज़्यादा हल्ला था, उसे गाँवों तक सीमित कर दिया.

गाँवों में भाजपा को ज़्यादा नुक़सान होना नहीं था, इसलिए उसकी रणनीति सफल हो गई. यही वजह है कि गुजरात में आप पार्टी कांग्रेस के लिए भस्मासुर बन गई. यही बीजेपी चाहती थी. कांग्रेस के बड़े नेता बार-बार गुजरात आए नहीं. न राहुल गांधी. न सोनिया गांधी. एक खडगे साहब आए थे वो भी मोदी जिनकी गुजरात में ब्रांड वैल्यू हैं, उन्हें रावण कहकर चले गए. जहां तक अशोक गहलोत का सवाल है, वो अपने राजस्थान के झगड़ों में ही उलझे रहे. इसलिए पिछली बार की तरह कोई कमाल नहीं दिखा पाए.

राजनीति में नैतिकता कैसी ? क्या नैतिक लोग चुनाव लड़ सकते हैं ? क्या राजनीति नैतिकता के सहारे चल सकती है ? कदापि नहीं. देश की राजनीति भले ही राम और सीता के नाप पर दौड़ती जताई है. लेकिन चुनावी खेल में महाभारत की नीति अपनाई जाती है. वह नीति जिसमे कोई आदर्श नहीं और कोई नैतिकता नहीं. सारा खेल प्रपंच और झूठ आधारित. राहुल गाँधी अभी नैतिकता की पराकाष्ठा पर चल रहे हैं. वो झूठी राजनीति नहीं चाहते. लेकिन क्या चुनाव में नैतिकता चलती है ? जिस गुजरात में आप जैसी पार्टी के समर्थन में भी लाखों लोग बीजेपी और कांग्रेस से निकलकर खड़े हो जाते हैं वही गुजरात फिर से बीजेपी के साथ कड़ी दिखती है. कथित बदलाव का यह खेल भ्रम ही तो बताता है.

Anzarul Bari
Anzarul Bari
पिछले 23 सालों से डेडीकेटेड पत्रकार अंज़रुल बारी की पहचान प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया में एक खास चेहरे के तौर पर रही है. अंज़रुल बारी को देश के एक बेहतरीन और सुलझे एंकर, प्रोड्यूसर और रिपोर्टर के तौर पर जाना जाता है. इन्हें लंबे समय तक संसदीय कार्रवाइयों की रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव है. कई भाषाओं के माहिर अंज़रुल बारी टीवी पत्रकारिता से पहले ऑल इंडिया रेडियो, अलग अलग अखबारों और मैग्ज़ीन से जुड़े रहे हैं. इन्हें अपने 23 साला पत्रकारिता के दौर में विदेशी न्यूज़ एजेंसियों के लिए भी काम करने का अच्छा अनुभव है. देश के पहले प्राइवेट न्यूज़ चैनल जैन टीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर शो 'मुसलमान कल आज और कल' को इन्होंने बुलंदियों तक पहुंचाया, टीवी पत्रकारिता के दौर में इन्होंने देश की डिप्राइव्ड समाज को आगे लाने के लिए 'किसान की आवाज़', वॉइस ऑफ क्रिश्चियनिटी' और 'दलित आवाज़', जैसे चर्चित शोज़ को प्रोड्यूस कराया है. ईटीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर राजनीतिक शो 'सेंट्रल हॉल' के भी प्रोड्यूस रह चुके अंज़रुल बारी की कई स्टोरीज़ ने अपनी अलग छाप छोड़ी है. राजनीतिक हल्के में अच्छी पकड़ रखने वाले अंज़र सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय खबरों पर अच्छी पकड़ रखते हैं साथ ही अपने बेबाक कलम और जबान से सदा बहस का मौज़ू रहे है. डी.डी उर्दू चैनल के शुरू होने के बाद फिल्मी हस्तियों के इंटरव्यूज़ पर आधारित स्पेशल शो 'फिल्म की ज़बान उर्दू की तरह' से उन्होंने खूब नाम कमाया. सामाजिक हल्के में अपनी एक अलग पहचान रखने वाले अंज़रुल बारी 'इंडो मिडिल ईस्ट कल्चरल फ़ोरम' नामी मशहूर संस्था के संस्थापक महासचिव भी हैं.
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